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________________ मायातिरियाणऽहिया, मेहुणआहारमुच्छभय सन्ना । सभवे कमेण अहिया, मणुस्सतिरिअमरनिरयाणं ।। 286 ।। माया तिर्यंचानां अधिका । मैथुनाहारमुच्छ ( परिग्रह) भयसंज्ञा । स्वभवे क्रमेण अधिका। मनुष्यतिर्यग्चामरनारका नाम्।। 286 || अब यहाँ आहारादि चार संज्ञाओं का क्रम से चारों गतियों से सम्बन्ध बताते हैं। मनुष्य में मैथुन संज्ञा, तिर्यचों में आहार संज्ञा, देवों में परिग्रह संज्ञा एवं नारकों में भय संज्ञा की अधिकता होती है । उपदेश पुष्पमाला / 113 मित्तं पि कुणइ सत्तुं, अहियं हियं पि परिहरइ । कज्जाकज्जं न मुणइ. कोवस्स वसगओ पुरिसो । । 287 ।। मित्रं अपि करोति शत्रु, प्रार्थयते अहितं हितं अपि परिहरति । कार्याकार्य न जानाति कोपस्य वशंगतः पुरुषः ।। 287 ।। कोप के वशीभूत होकर मनुष्य मित्र को शत्रु बना लेता है, अपना ही अहित चाहने लगता है और हित का त्याग कर देता है तथा कार्य-अकार्य के स्वरूप को भी नहीं जानता है । धमत्थकामभोगाण, हारणं कारणं दुहरायाणं । मा कुप्पसु कयभवोहं, कोहं जइ जिणमयं मुणसि । । 288 ।। धर्मार्थकामभोगानां हारणं कारणं दुःखशतानां । मा कुरुष्व कृतभवौघं क्रोधं यदि जिनमतं जानासि ।। 288 ।। यदि जिनमत को जानते हो तो धर्म-अर्थ, काम और भोगों के विनाशक, सैकड़ों दुःखों के कारणभूत तथा संसार प्रवाह में गिराने वाले इस क्रोध को मत करों । इह लोए च्चिय कोवो, सरीरसंतावकलहवेराइं । कुणइ पुणो परलोए, नरगाइसु दारुणं दुक्खं ।। 289 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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