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________________ 114 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री ___इह लोके एव कोपः, शरीरसंतापकलहवैराणि। करोति पुनः परलोके, नरकादिषु दारूणं दुःखं ।। 289 ।। इस लोक में यह क्रोध शारीरिक-सन्ताप, कलह एवं वैरभाव (दुश्मनी) को उत्पन्न करता है और परलोक में असह्य नारकीय दुःखों को उत्पन्न करता है। खंती सुहाण मूलं, मूलं धमस्स उत्तमा खंती। हरइ महाविज्जा इव, खंती दुरियाई सयलाई।। 290।। क्षन्तिः सुखानां मूलं, मूलं धर्मस्य उत्तमा शान्तिः । हरति महाविद्या इव शान्तिः दुरितानि सकलानि(हरति)।। 290 ।। जैसे क्रोध का विरोधीगुण क्षमा सुखों का मूल है इसी प्रकार उत्तम क्षमा धर्म का भी मूल है। क्षमा महाविद्या के समान महा प्रभाविक है और क्षमा सर्व आपदाओं का नाश करने वाली है। कोवम्मि खमाए वि अचंकारिय खुड्डुओ य आहरणं। कोवेण दुहं पत्तो, खमाएनामिओसुरेहिं पि।। 291।। कोपे क्षमायां अपि अचङ्कारित क्षुल्लक च उदाहरणं। कोपेन दुःखं प्राप्तः क्षमया प्रणतः सुरैः अपि।। 291 ।। क्रोध एवं क्षमा के परिणामों को स्पष्ट करने के लिये क्रमशः अचंकारित भट्टिका एवं नागदत्त नाम के क्षुल्लक के कथानक कहे गये हैं जो क्रोध करने के फल स्वरूप महान् दुःख को प्राप्त हुए तथा क्षमा करने पर देवों द्वारा वन्दित हुये। जाइकुलरूवसुअबल-लाभतविस्सरियअहा माणो। जाणियपरमत्थेहि, मुक्को संसारभीरूहिं।। 292।। जातिकुलरूपश्रुतबललामऐश्वर्य अष्टधा मानः । ज्ञात परमार्थैः मुक्तः संसार-भीरुभिः ।। 292 || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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