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112 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
है । लता, काष्ठ, अस्थि (हड्डी) और शैल, स्तम्भ (पत्थर, खम्भा) के समान मान चार प्रकार का है।
मायाऽवलेहिगोमुत्ति - मिंढ़सिंगघणवंसिमूलसमा । लोहो हलिद्दखंजण - कद्दमकिमिरागसामाणो ।। 283 ।। मायाऽवलेखिगोमूत्र - मेष श्रृंग - घनवंशीमूल - समा । लोभः हरिद्रा - खंजनकर्दमक्रमिराग समानः ।। 283 ।। अवलेखिका, गोमुत्रिका, मेष श्रृंग और धन वंश मूल (बांस की जड़) के समान माया चार प्रकार की है। हल्दी, खंजन, कर्दम और कृमिराग के समान लोभ चार प्रकार का है ।
पक्खचउमासवच्छर- जावज्जीवाणुगामिणो भणिया । देवनरतिरियनारयगइसाहणहेयवो णेया । । 284 | 1 पक्ष चतुर्मासवत्सर - यावत् जीवानुगामिनः भणिताः । देवनरतिर्यञ्चनारकगति साधनहेतवः ज्ञेयाः । । 284 ।। उक्त अनन्तानुबन्धी आदि चार कषाय क्रमशः एक पक्ष, चारमास, वर्ष और यावत्जीवन पर्यन्त रहते हैं तथा क्रमशः यह देव, मनुष्य, तिर्यंच, और नरकगति के हेतु होते हैं।
चसु विगईसु सव्वे, नवरं देवाण समहिओ लोहो । नेरइयाणं कोवो, माणो मणुयाण अहिययरो ।। 285 ।। चतसृषु अपि गतिषु सर्वे न वरं देवानां समधिकः लोभः । नारकानाम् कोपः, मानो मनुष्यानां अधिकतरः ।। 285 ।। चारों ही गतियों में कषाय के इन चारों ही भेद वाले प्राणी मिलते हैं, फिर भी देवताओं में लोभ की अधिकता, मनुष्य में मान का अतिरेक, तिर्यंच में माया की बहुलता और नरक में क्रोध की अधिकता होती है ।
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