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उपदेश पुष्पमाला/ 111
क्रोधादि ही वस्तुतः संसार का मूल कारण है।
कोहो माणो माया, लोभो चउरो वि होंति चउभेया। अणअपच्चक्खाणा, पच्चक्खाणा य संजलणा।। 280 ।। क्रोधः मानः माया, लोभः चत्वारोऽपि भवन्ति चतुर्भेदाः। अनन्त-प्रत्याख्याना, प्रत्याख्याना च संज्वलनाः।। 280 || कषाय के क्रोध, मान, माया और लोभ ऐसे चार भेद है। फिर इनमें से प्रत्येक के चार-चार भेद होते हैं 1. अनन्तानुबन्धी 2. अप्रत्याख्यानी 3. प्रत्याख्यानी और 4. संज्वलन। इस प्रकार कषायों के 4 x 4 = 16 भेद होते हैं।
बंधति भवमणंतं, ते(य)ण अणंताणंबंधिणो भणिया।
एवं सेसा वि इम, तेसि सरूवं तु विन्नेयं ।। 281 ।। बघ्नन्ति भवमनन्तं, ते (च) न अनन्तानुबन्धिनः भणिताः।
एवं शेषाऽपि इमे, तेषां स्वरूपं तु विज्ञेयं ।। 281।। जिन कषायों के कारण अनन्त भवों का बन्ध होता है या जिनके कारण अनन्त काल तक संसार मे परिभ्रमण करना होता है उसे अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं। अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व का घातक है। इस प्रकार अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ के स्वरूप को जानना चाहिये।
जलरेणुपुढविपव्वय-राईसरिसो चउव्विहो कोहो। तिणिसलयाकट्ठट्ठिय-सेलत्थंभोवमो माणो।। 282 || जल रेणुपृथ्वी-पर्वत राजिसद्दशः चतुर्विधाः क्रोधः ।
तिनिसलताकाष्ठास्थिशैलस्तम्भोपमः मानः ।। 282 ।। जल राजि अर्थात् जल में खींची गयी लकीर, रेणु राजि, अर्थात् रेत में खींची गयी रेखा, पृथ्वी राजि अर्थात् मिट्टी में पड़ी हुयी दरार और पर्वतराजि अर्थात् पर्वत में पड़ी हुयी दरार के भेद से क्रोध चार प्रकार का
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