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110 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
(4) कषाय निग्रह द्वारम्
तो जिणसु इंदियाई, हणसु कसाए व जइ सुहं महसि। सकसायाण न जम्हा, फलसिद्धी इंदियजए वि।। 277।। ततः जय इन्द्रियाणि, जहि कषायान् एव यदि सुखं वांछसि।
सकषायानां न यस्मात् फलसिद्धिः इन्द्रियजयेऽपि।। 277 ।। यदि व्यक्ति स्वर्ग एवं अपवर्ग के सुख को पाने की इच्छा रखता है तो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करें तथा कषायों का उच्छेद करें, क्योंकि इन्द्रिय-जय होने पर भी कषायों के उच्छेद के बिना मोक्ष सुख की प्राप्ति नहीं होती है।
तेसि सरूवं भेओ, कालो गइमाइणो य भणियव्वा। पत्तेय च विवागो, रागद्दोसत्तभावो य।। 278 ।।
तेषां स्वरूपं भेदः कालः गतिआदयः भणितव्याः। प्रत्येकं विपाकः रागद्वेष तद् भावः च (वाच्यः)।। 278 ।। इसलिये अब यहाँ उन कषायों के स्वरूप, भेद, काल, गति आदि का विवेचन करेंगे, साथ ही प्रत्येक कषाय के विपाक, रूप, फल एवं राग-द्वेष के कारण होने वाले परिणामों का विवेचन करेंगे।
कम्मं कसं भवो वा, कममाओ सिं जओ कसाया तो। . संसारकारणाणं, मूलं कोहाइणो ते य।। 279 ।। कर्म कषं भवः वा, कतमाः अस्मिन् यतः कषाया ते।
संसार कारणानां, मूलं क्रोधादयः ते च।। 279 ।। 'कष्' शब्द का अर्थ है कसना, या बंधना जिनके कारण जीव बन्धन में आता है अथवा जिनके कारण जीव चतुर्गति रूप भव भ्रमण को प्राप्त होते हैं अथवा उससे स्व स्वरूप की हिंसा होती है। कष् अर्थात् कर्म के भाव को ही कषाय कहते हैं। और कषाय से ही क्रोधादि का जन्म होता है। यह
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