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________________ 104 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री एक दिवस की सम्यक् चारित्र की साधना से भी सम्प्रति राजा के समान राज्यादि एवं ऐश्वर्यादि की प्राप्ति हो जाती है, तो फिर पूर्ण रूप से यावज्जीवन सामायिकादि चारित्र के पालन से क्या मोक्ष रूपी अनन्त सुख की उपलब्धि नहीं होगी ? अर्थात् अवश्य प्राप्त होगी । इति पुष्पमाला विवरणे भावना द्वारे चरणशुद्धिरुपं ( 6 ) करण (इन्द्रिय) जय द्वारम् अजिइंदिएहिं चरणं, कट्टं व घुणेहिं कीरइ असारं । तो चरणऽत्थीहिं, दढं जयव्वं इंदियजयम्मि || 257 || अजितेन्द्रियैः चरणं, काष्ठं घुनैः क्रियते असारं । ततः चरणार्थिभिः, दृढं यतितव्यं इन्द्रियजये ।। 257 1 जिस प्रकार लकड़ी का कीड़ा लकड़ी के सारतत्व का ही भक्षण करता है उसी प्रकार इन्द्रियों का निग्रह नहीं करने वाला श्रमण भी तप संयमादि मुनि - जीवन के सारतत्वों का भक्षण करने से असार ही हो जाता है। अतएव सम्यक् चारित्र की स्थिरता को चाहने वाले मुनि को इन्द्रिय-जय हेतु दृढ़ इच्छा शक्ति से युक्त होना चाहिये। भे ओ सामित्तं चिय, संठाण पमाण तह य विसओ य । इंदियगिद्वाण तंहा, होइ विवागो य भणियव्वो । । 258 ।। भेदः स्वामित्वं चैव संस्थानं प्रमाणं तथा च विषयः । इन्द्रिय गृद्दानां तथा भवति विपाकः च भणितव्यः ।। 258 ।। यहाँ ग्रन्थकार कहते हैं कि अब मैं अग्रिम गाथाओं में इन्द्रियों के भेद, स्वामित्व, संस्थान, प्रमाण तथा विषयादि के लोलुप प्राणियों को प्राप्त होने वाले दुःखों का वर्णन करूंगा । पंचेव इंदियाइं, लोयपसिद्धाइं सोयमाईणि । दव्विंदियभाविंदिय - भेयविभिन्नं पुणिक्किक्कं ।। 259 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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