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________________ उपदेश पुष्पमाला/ 103 तत् चिंताशतशल्यित हृदयैः कषायकामाविडम्बितैः। कथं उपमीयते लोके, सुरवरप्रभुचक्रवर्तिभिः।। 253 ।। चिन्ता-रूपी अनेक शल्यों से युक्त तथा काम क्रोधादि कषायों से युक्त, देवों, इन्द्रों और चक्रवर्ती राजाओं के सुख की तुलना मोक्षमार्ग सुख के साथ कैसे की जा सकती है ? जं लहइ वीयराओ, सुक्खं तं मुणइ सुच्चिय न अन्नो। नहि गत्तासूयरओ, जाणइ सुरलोइय सुक्खं ।। 254।। यः लभते वीतरागः, सुखं तद् मुनयः न अन्यः । न हि गर्ताशूकर इव, जानाति सुरलौकिकं सुखं ।। 254 ।। राग-द्वेषादि से मुक्त होने पर ही मुनि वीतरागता प्राप्त करके प्रशम -सुख को प्राप्त करता है, परन्तु राग-द्वेष से युक्त मुनि, जिसे प्रशम सुख की लेशमात्र भी अनुभूति नहीं है, ऐसा मुनि सुरलोक के सुखों से भी वंचित रहता है तथा ऐहिक अपवित्र विषय सुखों में डूबा हुआ, वह मुनि गड्ढे में गिरे हुए शूकर के समान दुःखी होता है। इय सुहफलयं चरणं, जायइ एत्थेव तग्गयमणाणं। परलोकफलाइं पुण, सुरनरवरसिद्धिसोक्खाई।। 255 ।। इति सुखफलदं चरितं, जायते अत्रैव तद्गतमनोनां। परलोकफलानि पुनः सुरनरवरसिद्धिसौख्यानि।। 255।। जिनका चित्त चारित्र में रमण करता है, वे इस लोक में भी प्रशम सुख को प्राप्त करते हैं तथा परम्परा से अन्त में मोक्ष-सुख को प्राप्त करते हैं। अव्वत्तेण वि सामाइएण तह एगदिण पवन्नेणं। संपइराया रिद्धि, पत्तो किं पुण समग्गेणं ?।। 256 ।। अव्यक्तेन अपि सामायिकेन तथा एकदिनप्रपन्नेन। सम्प्रतिराजः ऋद्धिं प्राप्तः किं पुनः समग्रेण ?।। 256 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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