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________________ 102 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री गंभीर जिणवयणं, दुम्विन्नेयं अनिउणबुद्धीहिं। तो मज्झत्थेहिं इमं, विभावणीयं पयत्तेणं ।। 250 ।। गम्भीरं जिनवचनं, दुर्विज्ञेयं अनिपुणबुद्धिभिः। तस्मात् मध्यस्थैः एतद् विभावनीयं प्रयत्नेन।। 25011 जिन वचन अत्यन्त गम्भीर अर्थ वाले हैं। वे अनिपुण-बुद्धि-वालों द्वारा अविज्ञेय कहे गये हैं, इसलिये मध्यस्थ होकर अपने चित्त को दूषित न करते हुये जिनवाणी का प्रयत्न पूर्वक विचार करना चाहिये। उस्सग्गऽववायविऊ, गीयत्थो निस्सिओ य तो तस्स। अनिगृहंतो विरियं, असढो सव्वत्थ चारित्ती।। 251।। उत्सर्गापवादवेत्ता, गीतार्थः निश्रितः च यः तस्य । अनिगूहयन् वीर्य, अशठ: सर्वत्र चारित्री।। 251|| जो स्वयं ही उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग का सम्यक् ज्ञाता है ऐसे गीतार्थ का विनीत शिष्य आदि अपनी शक्ति के अनुसार तप, संयम आदि सभी करणीय कार्यों का निर्वाह, यदि अमायावी बन कर प्रयत्न पूर्वक करता है, तो उसे चारित्रवान् ही कहा जाता है। रागाइ दोसरहिओ, मयणमयट्ठाणमच्छरविमुक्को। जं लहइ सुहं साहू, चिंताविसवेयणारहिओ।। 252 ।। . रागादिदोषरहितः मदनमदस्थानमत्सरविमुक्तः। यत् लभते सुखं साधु, चिन्ताविषवेदना रहितः।। 252|| रागादि दोषों से रहित, काम-क्रोध अहंकार एवं मात्सर्य भाव से रहित और चिन्ता-रूपी विष की वेदना से रहित जो साधु है वह शाश्वत् सुख को प्राप्त करता है। तं चिंतासयसल्लिय–हियएहिं कसायकामनडिएहिं। कह उवमिज्जइलोए, सुरवरपहुचक्कवट्ठी हिं।। 253 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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