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उपदेश पुष्पमाला/ 101
उस्सग्गे अववायं, आयरमाणो विराहओ होइ। अववाए पुण पत्ते, उस्सग्गनिसेवओ भईओ।। 247 ।। __उत्सर्गे अपवादं आचरमाणः विराधकः भवति।
अपवादे पुनः प्राप्ते, उत्सर्गनिषेवकः भजनीयः।। 247 ।। उत्सर्ग मे अर्थात् सामान्य परिस्थिति में अपवाद का आचरण करने वाला निश्चय ही विराधक होता है। किन्तु अपवाद योग्य विशेष परिस्थिति में भी उत्सर्ग सेवन करने वाला कोई-कोई मुनि शुद्ध होता है एवं कोई-कोई मुनि शुद्ध नहीं भी होता है अर्थात् इसमें विकल्प (भजना) है।
किह होइ भइयव्वो ?, संघयणघिईजुओ समत्थो य।
एरिसओ अववाए, उस्सग्गनिसेवओ सुद्धो।। 248 ।। कथं भवति भजनीयः ? संहननधृति-संयुक्तः समर्थो च। इदृशः अपवादे, उत्सर्ग-निषेवमाणः शुद्धः (एव)।। 248 ।। इस सम्बन्ध में शुद्धता का निर्णय कैसे किया जाये ? शिष्य के इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा गया है कि संहनन एवं धैर्य युक्त मुनि अपवाद में भी उत्सर्ग का सेवन करता हुआ शुद्ध होता है।
इयरो उ विराहेई, असमत्थो जं परीसहे सहिउं। घिइंसंघयणेहिंतो, एगयरेणं व सो हीणो।। 249 ।। इतरो तु विराधयति, असमर्थः यत् परिषहान् सोढुं ।
धृतिसंहननाभ्यां, एकतरेण वा सः हीनः ।। 249 ।। इसके विपरीत संहनन एवं धृति हीन मुनि जो परिषहों को सहन करने में असमर्थ है, वह अपवाद योग्य परिस्थिति में भी उत्सर्ग के सेवन का दम्भ करने पर शिथिल परिणामों के कारण संयम की विराधना ही करता है।
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