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100 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
नहीं है परन्तु जिनेश्वरों की यह आज्ञा है कि एषणा आदि की शुद्धि में मुनि को माया, कपट रहित होना चाहिये।
दोसा जेण निरुब्मंति, जेण खिज्जति पुव्वकम्माइं। सो सो मुक्खोवाओ, रोगावत्थासु समणं व।। 244 ।।
दोषाः येन निरूध्यन्ते, येन क्षीयन्ते पूर्वकर्माणि।
सः सः मोक्षोपायः, रोगावस्थासुशमनं तदेव ।। 24411 जिनके द्वारा दोषों का निरोध (अवरोध) हो एवं पूर्वभव में अर्जित कर्मों का क्षय हो उन क्रियाओं को मोक्ष मार्ग अर्थात् मोक्ष साधना का उपाय माना गया है। जैसे जिससे रोगादि का शमन हो, वही औषध है।
बहुवित्थरमुस्स गं-बहुयरमववायवित्थरं नाउं। - जेण न संजमहाणी, तह जयसू निज्जरा जह य ।। 245 ।।
बहुविस्तरमुत्सर्ग, बहुतरमपवादविस्तारं ज्ञात्वा। येन न संयमहानि, तथा यतत्व निर्जरा तथा च।। 245 ।। उत्सर्ग का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है, किन्तु अपवाद का क्षेत्र उससे भी अधिक व्यापक है, ऐसा जानकर जिससे संयम की न हानि हो और कर्म निर्जरा भी हो, मुनि को वैसा प्रयत्न करना चाहिये।
सामन्नेणुस्सग्गो, विसेसओ जो स होइ अववाओ। ताणं पुण वावारे, एस विही वण्णिओ सुत्ते।। 246 ।।
सामान्येनोत्सर्गः, विशेषतः यः स भवति अपवादः। तयोः पुनः व्यापारे, एषः विधिः वर्णितः सूत्रे ।। 246 ।। सामान्य रूप से कही गयी विधि को उत्सर्ग कहते हैं तथा विशेष रूप से वर्णित अर्थात् परिस्थिति विशेष में आचरणीय विधि को अपवाद कहते हैं। इन्हीं दोनों अर्थात् उत्सर्ग और अपवाद मार्ग के आचरण के विषय में विधि निषेध का वर्णन आगमों में किया गया है।
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