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उक्तिव्यक्तिप्रकरण अध्यापनका ही अधिक प्रचार था ? । मगध, विदेह, एवं बंग देशमें तो प्राचीन कोलसे कातन्त्र व्याकरणका ही विशेष प्रचार रहा है, पर काशी जैसे विशेष पुराणप्रिय प्रदेशमें भी, इस व्याकरणका विशेष प्रचार उल्लेखनीय है । मालूम होता है कि बनारसमें भी पाणिनिका विशेष प्रचार भट्टोजी दीक्षितकी महती. व्या ख्या सिद्धान्त कौ मु दि की विशद रचनाके बाद ही, बढा है, पहल उतना नहीं था ।
जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है, ग्रन्थ त्रुटित अतएव अपूर्ण है । सौभाग्यसे ग्रन्थ की मूल सूत्रात्मक कारिकाएं, जो उपलब्ध ताडपत्रीय प्रतिमें, प्रारंभके ४ पन्नोंमें स्वतंत्र रूपसे लिख दी गई हैं, उनसे ज्ञात होता है कि ग्रन्थ ५ प्रकरणोंमें विभक्त है । प्रथम प्रकरण 'क्रियोक्तिव्यक्ति' नामक है, जो १ से १८ कारिकाओंमें पूरा हुआ है । दूसरा प्रकरणा 'कारकोक्तिव्यक्ति' नामका है जिसकी १९ से २४ तककी ६ कारिकाएँ हैं । तीसरा प्रकरण 'उक्तिभेद नामक २५ से २९ तकको ५ कारिकाओं का है। चौथा प्रकरण 'लेखलिखनविधि' नामसे है जिसकी ३० से ४० तक की ११ कारिकाएं है और ५ वां प्रकरण 'व्यावहारिकलेखपत्रलिखनक्रम” नामका है जो ४१ से ५० तक की १० कारिकाओं में पूर्ण हुआ है।
इन ५ प्रकरणोंमें से, प्रथमके ३ प्रकरणोंकी व्याख्या तो पूर्ण रूपमें उपलब्ध है, जो मुद्रित थुस्तकके पृष्ठ ३२ पर सम्मप्त होती है । शेष दो प्रकरणोंकी व्याख्या सर्वथा अनुपलब्ध है।
इस तीसरे प्रकरणके बाद, मुद्रित पृष्ठ ३३ से ले कर पृ० ५२ तक जो विषय प्राप्त है वह मूल कारिका.९ की व्याख्याका 'परिशिष्ट' रूप है । यह परिशिष्टात्मक अनुपूर्ती जैसी कि डॉ. चाटुाने शंका की है, किसी अन्य लेखककी कृतिरूप नहीं है; स्वयं ग्रन्थकार दामोदर ही की रचना है । ९वीं कारिकामें सकर्मक और अकर्मक धातुओंके शब्दप्रयोगोंका उल्लेख किया गया है । वहां पर व्याख्यानुरूप जितने शब्दप्रयोग, अवश्य उल्लेखनीय थे, उनका उल्लेख तो वहां ही कर दिया गया । पर अकर्मक और सकर्मक धातु तो सेंकडों हैं। धातुपाठोंमें निर्दिष्ट १० गणोंके अनेक ऐसे धातु हैं जिनके अपभ्रंश रूप और प्रयोग अपभृष्ट अर्थात् लोकभाषामें प्रयुक्त होते हैं। इस लिये इन सेंकडों धातुओंके शब्दप्रयोगोंका समावेश, उक्त ९ वीं कारिकाकी चालू व्याख्या में ही अन्तर्गत न करके उसके लिये एक स्वतंत्र प्रकीर्णात्मक प्रकरण, इस तृतीय प्रकरणके अन्तमें ग्रथित कर देना ग्रन्थकारने उचित समझा है । और इसका उल्लेख भी, खयं ९ वीं कारिकाकी व्याख्याके अन्तमें-"अवशिष्टव्यापारांश्च कियतोऽपि प्रकीर्णके वक्ष्यामः।" इस प्रकार स्पष्ट कर दिया है । अतः यह ९ वीं कारिकाकी व्याख्याका परिशिष्ट है । इसमें भ्वादि - अदादि आदि १० गणोंके धातुओंके, लोकभाषामें प्रचलित शब्दप्रयोगोंका विस्तृत संग्रह किया गया है। इस परिशिष्टमे, ३३ से ले कर ५० वें पृ० तकके मुद्रित १८ पृष्ठोंमें केवल प्रथम भ्वादि गणके धातु संबन्धित शब्दप्रयोग हैं। फिर आगे १ पृष्ठ जितना अंश, अदादि - जुहोत्यादि गणके धातुसाधित शब्दप्रयोगोंका है । बादमें दिवादि गणका प्रारंभ होता है, जो प्रायः अपूर्ण मालूम देता है । इससे प्रतीत होता है कि यह प्रकीर्णात्मक प्रकरण, काफी बड़ा होगा। क्यों कि चुरादि गण आदि अन्य गणोंके धातुओंकी संख्या भी काफी बडी है ।
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