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ग्रन्थसंपादकका प्रास्ताविक वक्तव्य लोकव्यवहारकी प्रचलित देशभाषाके लिये विद्वान् जन अपभ्रंश नामका व्यवहार करते थे। अपने समयमें : अपने देशमें प्रचलित, लोकव्यवहृत अपभ्रंश भानाका, संस्कृत व्याकरणकी पद्धतिसे किस प्रकारका संबन्ध है और किस प्रवैार लोकभाषाके लोकरूढ उक्तियों = शब्दप्रयोगों द्वारा संस्कृतके व्याकरणका आधारभूत स्थूल ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है - इसका विचार पण्डित दामोदरने इस ग्रन्थमें चिद्ध किया है। इसमें प्रयुक्त 'उक्ति' शब्दका अर्थ है 'लोकोक्ति अर्थात् लोकव्यवहारमें प्रयुक्त भाषापद्धति; जिसे हम हिन्दी में 'बोली' कह सकते हैं। लोकभाषात्मक 'उक्ति' की जो व्यक्ति' अर्थात् व्यक्तता = स्पष्टीकरण; तत्संबन्धी विचारका विवेचन इस' ग्रन्थमें किया गया है अतः इसका नाम 'उक्तिव्यक्ति शास्त्र' रखा गया है ।
लोकभाषामें प्रचलित शब्द, वास्तवमें तो प्रायः संस्कृत भाषाके ही मूल शब्द हैं, परंतु पाम र ज न अर्थात् अपठित एवं अशिक्षित जनोंके अशुद्ध वाग्व्यापारके कारणसे, उन शब्दोंके वर्णो, अक्षरों आदिमें परिवर्तन हो हो कर, उनके मूल स्वरूपका भ्रंश हो गया भर्थात् वे शब्द अपने असली रूपसे भ्रष्ट हो गये । इस लिये इस लोकव्यवहारमें प्रचलित शब्दखरूप वाली भाषाको पण्डित दामोदरने अपभ्रंश या अप भ्रष्ट नामसे उल्लिखित किया है; और किस तरह इन अपभ्रष्ट शब्दप्रयोगोंका, संस्कृतके व्याकरणनिबद्ध क्रिया, कारक, कर्म आदि उक्ति - प्रकारोंके साथ, संबन्ध रहा है, उसका स्वरूपप्रदर्शन, इस ग्रन्थमें बताया है । इसीलिये 'इसका दूसरा नात्र प्रयोग प्रकाश ऐसा रखा गया है ।
ग्रन्थमें प्रतिपादित इस महत्त्वके विषय पर यहां अधिक लिखनेका अवकाश नहीं है । सद्भाग्यसे इस विषयके प्रतिपादक, इसी शैलीमें लिखे गये, अनेक छोटे बडे ग्रन्थ, हमें राजस्थान एवं गुजरातके प्राचीन ग्रन्थभण्डारोंमेंसे प्राप्त हुए हैं और उनके संग्रहात्मक ऐसे दो- तीन ग्रन्थ हम
और प्रकाशित करना चाहते हैं । इनमेंसे, उक्तिरत्नाकर - आदि, ऐसी ही ४-५ कृतियोंका संग्रहखरूप, एक ग्रन्थ तो, राजस्थान सरकार द्वारा प्रस्थापित एवं प्रकाशित तथा हमारे द्वारा संचालित एवं संपादित राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला में शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है ।
इस प्रकारकी उक्तिव्यक्ति विषयक भिन्न भिन्न कृतियोंका और उनमें ग्रथित भाषा विषयक सामग्रीका विस्तृत विचार, हम किसी अन्यतम ग्रन्थमें करना चाहते हैं। हिन्दी, राज- स्थानी, गुजराती, मराठी, बंगाली आदि भारतीय - आर्यकुलीन - देशभाषाओंके विकास-क्रमके
अध्ययनकी दृष्टिसे यह औक्तिक साहित्य - संग्रह बहुत उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करेगा। ... दामोदरकी इस रचनामें, संस्कृतके जिस व्याकरण ग्रन्थका अवलंबन किया गया है वह सर्व वर्म के का तंत्र व्या क र ण से संबद्ध है । पाणिनिव्याकरण की संकेत परंपराका इसमें कोई निर्देश नहीं है। स्यादि, त्यादि आदि विभक्ति नाम; वर्तमाना, सप्तमी, पञ्चमी, ह्यस्तनी, अद्यतनी आदि क्रियाकालोंके नाम; तथा शतृङ्, आनश, निष्ठा, कन्सु आदि कृत्प्रत्ययनामों से स्पष्ट बोध होता है कि ग्रन्थकार कातन्त्रव्याकरणोक्त संज्ञाओंका व्यवहार करता है। इससे क्या यह अनुमान किया जा सकता है कि उस समय बनारस में भी पाणिनिकी अपेक्षा कातन्त्र व्बाकरणके.अध्ययन
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