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________________ उक्तिव्यक्तिप्रकरण पुस्तिकाके प्रारंभमें प्रथम ग्रन्थकी मूल - भूत ५० कारिकाएं लिखी गई हैं जो पत्र ४ की प्रथम पृष्ठिके मध्य भागमें समाप्त हुई हैं । इसके बाद चालू पंक्तिमें ही विवृति या व्याख्याका प्रारंभ होता है। * ग्रन्थका नाम, जैसा कि. कारिकाओंकी समाप्तिके बादकी पंक्तिमें सूचित है 'उक्ति व्यक्ति' इतना ही है । पर पृष्ठ ३१ पर जैसा उल्लेख किया गया है, उससे इसका पूरा नाम 'उक्ति व्यक्ति शास्त्र' मालूम देता है । साथमें इसका प्रयोग प्रर्काश' ऐसा दूसरा नाम भी बताया गया है। यह ग्रन्थ अनेक दृष्टिसे महत्त्वका है । नूतन - भारतीय - आर्य - भाषाके इतिहासम इसको सर्वप्रथम स्थान प्राप्त होना चाहिये। भारतके समग्र संस्कृत साहित्यमें अभी तक ऐसी कोई ग्रन्थकृति प्राप्त नहीं हुई है जिसमें हमारी अनेकविध देशभाषाओंमें से किसीके भी ११ वी १२ वीं शताब्दी जितने प्राचीन एवं आरंभ कालके समयका स्वरूप बतलाने वाली, इस प्रकारकी प्रमाण भूत एवं व्याकरणबद्ध 'उक्ति' अर्थात् 'बोली'की शाब्दिक सामग्रीका संकलन प्राप्त हो । जैसा कि डॉ० चाटुा महाशयने, अपनी 'स्टडी' के प्रारंभमें, सप्रमाण सूचित किया है कि इस ग्रन्थमें प्रयुक्त 'बोली' प्राचीन कोलश देशकी बोली है और इस लिये इसे 'कोशली' भाषाका सबसे प्राचीन स्वरूप प्रदर्शित करने वाली कृति समझना चाहिये । 'कोशली' का लोक प्रचलित नाम वर्तमानमें 'अवधी' या 'पूर्वीया हिन्दी' रूढ है । इसी अवधीमें, मलिक मद्म्मद जायसीने अपनी लोकप्रिय पदुमावती कथाकी और बादमें संत तुलसीदासने रामचरितमानस अर्थात् रामायण कथाकी रचना की । ये दोनों महाकवि १६ वीं शताब्दीमें हुए। प्रस्तुत 'उक्ति व्यक्ति' प्र० की रचना उक्त दोनों महाकवियोंसे, कम-से-कम, ४०० वर्ष पूर्वकी है । इतने प्राचीन समयकी यह रचना केवल कोशली अर्थात् अवधी उपनाम पूर्वीया हिन्दी की दृष्टिसे ही नहीं, अपितु समग्र नूतन - भारतीय - आर्यकुलीन - भाषाओंके विकास - प्रामके अध्ययनकी दृष्टिसे भी बहुत महत्त्वका स्थान रखती है। इस ग्रन्थमें इस प्रकार केवल प्राचीन कोशलीकी भाषाका नमूना ही हमें नहीं मिल रहा हैपरंतु उसके साथ, भाषा और व्याकरणशास्त्र विषयक कई अन्य महत्त्वकी बातोंका भी इसमें उल्लेख हैं । ग्रन्थकार, इसमें प्रयुक्त देशभाषाका कोई विशिष्ट नामनिर्देश नहीं करता है । इसे केवल, सामान्य रूपसे अपभ्रंश नामसे उल्लिखित करता है। उस समय, संस्कृत एवं प्रौढ प्राकृत के सिवा इस अन्य पुस्तिकाके पत्रका भी चित्र यहां पर दिया जाता है जिससे इसके स्वरूपका प्रत्यक्ष दर्शन हो सके । मालूम देता है कि जिस ग्रन्थका यह पत्र है वह शायद पण्डित दामोदर ही की कोई ऐसी ही अन्य कृति हो । इस एकमात्र पत्रके पढनेसे अन्थगत विषयका जो आभास होता है, उससे अनुमान होता है कि वह ग्रन्थ भी, बालजनोंको सरलताके साथ संस्कृत भाषाका प्रारंभिक एवं मूलाधार (बेजिक) स्वरूप ज्ञान करानेके उद्देश्यसे रचा गया होना चाहिये । ठीक इसी ढंगका एक सरल संस्कृतव्याकरणात्मक ग्रन्थ जिसका नाम 'बालशिक्षा' - है हम राजस्थान पुरातन ग्रन्थमालामें प्रकट कर रहे हैं और उसकी प्रास्ताविक भूमिका में प्रस्तुत पत्रगत विषयका विशेष परिचय दे कर उसमें इसका कुछ पाठोद्धार भी देना चाहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002503
Book TitleUkti Vyakti Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDamodar Pandit
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1952
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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