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________________ ग्रन्थसंपादक का प्रास्ताविक वक्तव्य ग्रन्थोंकी नाभावलि आदि प्रकट हो चुकी है । प्रस्तुत प्रकरणकी त्रुटित पुस्तिका भी इसी भण्डारमें संग्रहित है । जैसा कि ग्रन्थके मुद्रित भागसे ज्ञात हो रहा है, यह ग्रन्थ अपूर्ण एवं त्रुटित है । पुस्तिका १ से ६१ पत्र तक मिलते हैं जिनमें भी बीचके ५१, ५२, ५५, ५९, ६० इस प्रकार ५ पत्र नहीं हैं । पुस्तकगत विषयकी दृष्टिसे, मालूम देता है कि ग्रन्थ काफी बडा होगा । जो भाग खण्डित हो कर अप्राप्य है वह कितना होगा इसकी कोई कल्पना करनेका साधन नहीं है । मूल ग्रन्थकी कुल ५० कौरिकाएं हैं जिनमें २९ कारिकाओंकी विवृति अथवा व्याख्या उपलब्ध है । शेष कारिकाओंका अर्थात् २१ कारिकाओंका विवरण अनुपलब्ध है। इस दृष्टिसे यह मुद्रित ग्रन्थ से कुछ ही आधिक भाग जितना होगा । और इस कल्पनांनुसार यदि तर्क किया जाय तो कम से कम ४०-५० जितने पत्र इसके नष्ट हो गये होंगे । - . यह ताडपत्रीय पुस्तिका, मध्यम आकारकी है । इसके पत्रोंकी लंबाई १२३ इंच है और चौडाई १३ से २ इंच तक है । प्रत्येक पृष्ठ पर ६-६ पंक्तियां लिखी हुई हैं और प्रत्येक पंक्ति में ६०-६५ जितने अक्षर लिखे हुए हैं । पत्रमें की लिखावट दो भागों में विभक्त है और बीचमें, पुस्तिकाको सूतके धागेसे बान्ध रखनेके निमत्त इंच जितनी जगह कोरी, छोड दी गई है और उसमें सूत पिरोनेके लिये छिद्र भी बने हुए हैं । पत्रोंकी लिखावट एवं लिपिके आकार - प्रकार आदिकी कल्पना, साथमें दिये गये पन्नोंके चित्र देखनेसें हो सकेगी 1 पुस्तिकाका अन्तिम भाग उपलब्ध न होनेसे यह नहीं ज्ञात हो सकता कि लिपिकर्ताने इसके अन्तमें अपना समय, स्थान और नाम आदिका, जैसा कि बहुतसे लिपिकर्ता करते रहते हैं, कुछ निर्देश किया था या नहीं; और इसलिये इस पुस्तिका लिखी जाने समयकी कोई विशेष कल्पना करनेका कुछ साधन नहीं है । लिपि, एवं सामान्य पत्रादिकी अवस्था देख कर, हमारा 'अनुमान होता है कि वि० सं० १३०० - १३५० के समयके आसपास यह लिखी हुई होनी चाहिये। । + इस पुस्तिका में, एक किसी अन्य पुस्तिकाका पत्र भी साथमें मिला है जिसका पत्रांक ९ है । यह भी किसी व्याकरण विषयक पुस्तिकाका ही पत्र है जो गलतीसे इस पुस्तिका के साथ लग गया है। इसका लिपि"कर्ता वही है जो उक्तिव्यक्ति प्र० पुस्तिकाका लिपिकर्ता है । दोनोंके हस्ताक्षरोंकी एकरूपता एवं पत्रकी आकृति, परिमिति आदिकी सर्वथा समानता दृष्टिगोचर होनेसे, यह स्पष्टतया ज्ञात हो रहा है कि जिस लिपिकारने उक्ति प्र० मुस्तिकाकी प्रतिलिपि की है उसीने इस पत्रांक ९ वाली किसी अन्य पुस्तिकाकी भी प्रतिलिपि की है । संभव है। वह पुस्तिका भी पहले इस पुस्तिका के साथ ही रखी रही हो और किसी कारणवश उसका यह ९ वां पन्ना उसमेंसे छंट कर इसके साथ लग गया हो और फिर उस पुस्तिका के अलग हो जानेसे यह पन्ना इसीमें पड़ा रहा हो । ऐसा गोलमाल प्रायः समान नापकी और समान लिपिकी प्राचीन पोथियोंमें और उनमें भी खास करके ताड़पत्रीय पोथियोंमें अकसर हुआ करता था । जेसलमेर, पाटण आदिके भण्डारोंमें ऐसी सेंकडों पोथियों के पन्ने उलट पुलट हुए हुए, हमें दृष्टिगोचर हुए हैं और उनमेंसे अनेकोंके पन्नोंको, हमने स्वयं ठीक-ठाक भी करके जिस - उस पुस्तकके साथ मिला कर रखे हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002503
Book TitleUkti Vyakti Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDamodar Pandit
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1952
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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