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________________ • ग्रन्थ संपादकका प्रास्ताविक वक्तव्य ३ मुग्धावबोध आदि औक्तिक ग्रन्थोंमें प्रयुक्त हुई है । मेरी इच्छा इस ग्रन्थका कुछ विशेष रूप से अनुशीलन करनेकी हुई, अतः मैंने उक्त पूज्य मुनिवरसे निवेदन किया कि वे मेरे लिये इस नाडपत्रीय पुस्तिकाकी, किसी योग्य लेखकसे प्रतिलिपि का दें । मेरा पाटण जाना केवल दो-तीन दिन ही के लिये हुआ था और भण्डारमेंसे उक्त पुस्तिकाका बहार नीकलना अशक्य था; अतः मैंने उनसे ऐसी प्रार्थना की। मेरी प्रार्थना पर उक्त मुनिवरने दो चार महिने बाद इसकी प्रतिलिपि करवा भेजी । - करने के लिये 'प्राचीनगुजराती जिसमें वि० सं० १३०० से · उस समय 'गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर ग्रन्थावलि में प्रकट गद्यसंदर्भ' के नामसे एक संग्रहात्मक ग्रन्थ मैं तैयार कर रहा था, ले कर १६०० तकके ३०० वर्षमें लिखे गये, प्राचीन गुजराती. पश्चिमी राजस्थानी भाषा चुने हुए उद्धरणोंका एक अच्छा प्रमाणभूत संग्रह संकलित करना चाहा था । इसके लिये मैंने बहुत कुछ आधारभूत सामग्री एकत्रित करनी शुरू की । पाटण आदिके भण्डारोंमें प्राप्त प्राचीन ताडपत्रीय एवं वैसी ही प्राचीन कागजीय पुस्तकोंमें, यत्र तत्र उपलब्ध फुटकल गद्य उद्धरणोंके साथ, कुछ स्वतंत्र प्रकरणस्वरूप कृतियों का भी मैंने संग्रह किया । इस सामग्रीको व्यवस्थित करने में एवं उसका कालक्रमानुसार संकलन करनेमें, कुछ विशेष समयका व्यतीत होना अनिवार्य समझ कर, मैंने प्रथम एक उदाहरणस्वरूप, वि० सं० १३०० से ले कर १५०० के बीचके २०० वर्षोंके अन्तर्गत लिखे गये ग्रन्थोंमेंसे, भाषा और शैली - दोनों दृष्टिसे अधिक उपयुक्त लगने वाले अवतरणादिका छोटा-सा संकलनात्मक निबन्ध तैयार कर प्रकट किया। यही उक्त गुजराती गद्यसंदर्भ है । इस ग्रन्थके मूल मात्रका मुद्रण कार्य जब संपन्न होने आया, तब मेरा जर्मनी जानेका प्रसंग बना। १९-२० महिने उधर बीता कर मैं जब वापस स्वदेश आया, तो अहमदाबादमें, महात्माजीने भारतकी स्वतंत्रता के लिये वह संसारप्रसिद्ध नमक सत्याग्रहका आन्दोलन शुरू किया । गुजरातकै राष्ट्रीय विद्यापीठके एक विनम्र सेवकके रूपमें, मेरा भी उस आन्दोलनमें सम्मिलित होना स्वाभाविक था । अतः उस पुण्य पर्व में भाग लेनेके कारण, जर्मनीसे वापस आने पूरे भी, मैं अपने पूर्व प्रारब्ध साहित्यिक कार्योंका, पुनः सन्धान करनेमें प्रायः असमर्थ रहा और गुजरात • विद्यापीठके पुरातत्त्व मन्दिरमें बैठ कर 'प्राचीन गुजराती गद्यसंदर्भ' पर विस्तृत विवेचनात्मक प्रस्तावना आदि लिखनेके बदले, ब्रिटिश सरकारके कारागारमें जा कर बैठनेका, और वहां पर रिगरस इम्प्रिजनमेंट' की सजाके अनुरूप कार्य करनेका तप प्राप्त हुआ । जेलमेंसे मुक्ति •मिलने बाद, मुझे कवीन्द्र गुरुदेव श्री श्री रवीन्द्र नाथ की पुनीत इच्छानुरूप, 'यत्र विश्वमा भात्यकनीडम्' सूत्रकी सार्थकताकी साक्षात् अनभूति कराने वाले विश्व भारती के शान्ति निकेतन में जा कर रहनेका सद्भाग्य प्राप्त हुआ । वहीं पर रहते हुए मैंने सिंघी जैन ग्रन्थमाला का आरंभ किया । इस माला के द्वारा, मैंने अपने पूर्वसंकल्पित विविध ग्रन्थोंके संपादन - संशोधन आदि करने - करानेका एवं उनको प्रकाशमें लानेका प्रयत्न प्रारंभ किया । इस कार्यका यह २३ वां वर्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002503
Book TitleUkti Vyakti Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDamodar Pandit
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1952
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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