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उक्तिव्यक्तिप्रकरण इस ग्रन्थका सबसे पहला उल्लेख, 'मेरे एक सर्गवासी स्नेहास्पद विद्वान् मित्र श्री चिमनलाल डाह्याभाई दलाल एम्. ए. (गायकवाडस् ओरिएन्टल सीरीझ के उत्पादक एवं आद्य संपादक) ने, अपने एक निबन्धमें किया, जो सुरतमें, सन् १९१.५ के मई मासमें, संयोजित गुजराती साहित्य परिषत् के पंचम अधिवेशनके लिये लिखा गया था । 'पाटणके भण्डार और खास करके उनमें उपलब्ध अपभ्रंश तथा प्राचीन गुजराती साहित्य' यह उनके निबन्धका मुख्य विषय था। उनने उससे कुछ ही महिनों पहलें, पाटणके भण्डारोंका विशेष रूपसे अवलोकन किया था और उस अवलोकनमें उनका मुख्य दृष्टिकोण यह रहा था कि प्राचीन गुजराती और अपभ्रंश भाषा विषयक किस प्रकारकी सामग्री, उन भण्डारोंमें संचित है। उस समय उनने प्रस्तुत ग्रन्थकी प्राचीन ताडपत्रीय पुस्तिकाका भी सरसरी तौरसे अवलोकन किया; लेकिन मालूम देता है कि इसका कुछ प्रारंभिक भाग ही उनने पढा और उससे अधिक विशेष परिचय नहीं प्राप्त किया । उक्त निबन्धमें, अन्तमें उनने प्राचीन औक्तिक विषयक कई नई कृतियोंका उल्लेख किया, जिनके विषयमें, उससे पहले किसीको कुछ ज्ञात नहीं था । परन्तु दामोदरके प्रस्तुत उक्ति व्यक्ति प्रक र ण के विषयमें, उनने अपने निबन्धमें संक्षेपमें इतना ही लिखा कि "दामोदर रचित उक्तिव्यक्ति (५० आर्या ) ताडपत्र पर है । टीकाकारने उक्ति व्यक्तिका, अपभ्रंश भाषाओंसे आच्छादित संस्कृत भाषाका प्रकटीकरण ऐसा अर्थ किया है।" इस कथनसे ज्ञात होता है कि श्री दलाल इस ग्रन्थका विशेष अवलोकन नहीं कर सके। नहीं तो उनके जैसे बहुत ही मर्मज्ञ और सूक्ष्मदृष्टा विद्वान्के लक्ष्यमें इसका महत्त्व आये विना न रहता।
. महात्मा गांधीजीके मुख्य नेतृत्वमें स्थापित अहमदाबादके गुजरात राष्ट्रीय विद्यापीठ के पुरातत्त्व मन्दिर नामक विशिष्ट विभागके आचर्य पद पर, प्रस्तुत संपादककी जबसे सर्वप्रथम नियुक्ति हुई, तभी से मैंने औक्तिक प्रकारके साहित्यका संकलन करना निश्चय किया
और यथाशक्य उत्तको प्रकाशमें लानेको प्रयत्न चलाया। ई. स. १९२३-२४ का समय होगा - मैं एक वार पाटण गया और वहांसे कुछ अन्यान्य औक्तिक प्रकरणोंके प्राचीन आदर्श प्राप्त किये और साथमें प्रस्तुत दामोदरकृत उक्तिव्यक्तिप्रकरण की वह ताडपत्रीय पुस्तिकाजिसका उलेख श्री दलालने उक्त रूपसे अपने निबन्धमें किया था- देखनेका भी प्रयत्न किया । पाटणके जिस भण्डारमें यह पुस्तिका सुरक्षित है उस भण्डारमें प्रवेश करना और उसमेंसे ग्रन्थ प्राप्त करना बडा दुर्लभ - सा है । पर दिवंगत ज्ञानतपस्वी मुनिवर श्री चतुरविजयजी महाराजकी सुकृपासे मुझे उस पुस्तिकाके दर्शनका सौभाग्य प्राप्त हो गया। पुस्तिकाकी लिपि देखते ही मुझे यह तो ज्ञात हो गया कि यह पुस्तिका गुजरात - राजस्थान में कहीं नहीं लिखीं जा कर पूर्व भारतके किसी. प्रदेशमें लिखी गई होनी चाहिये । गुजरात - राजस्थानकी तत्कालीन शास्त्रीय लिपि और पूर्वदेशीय शास्त्रीय लिपिके मरोडमें (आकृति और रेखाङ्कण आदिमें) थोडा बहुत भेद पाया जाता है, जिसे बहुलिपिविज्ञ तुरन्त पहचान सकता है । फिर मैंने इसके कुछ पन्ने उलट-पुलट कर देखे, तो इसके बीच बीचमें देश्य भाषाक जो शब्द मेरे पढनेमें आये उनकी भाषा, उन औक्तिक कृतियोंकी भाषासे कुछ मिल मालूम दी, जो
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