SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यात्रा की थी। शत्रुञ्जय तीर्थ का खर्च चलाने के लिए उसने बारह गाँव उसके साथ लगा देने के लिए अपने महामात्य अश्वाक को आज्ञा दी थी। इससे प्रतीत होता है कि सिद्धराज के हृदय में जैन-धर्म के लिए किसी प्रकार की तुच्छ भावना नहीं थी। उसमें और कुमारपाल में जो अन्तर था वह यही कि सिद्धराज अपने मनमें शैव धर्म को मुख्य मानता था और जैनधर्म को गौण, कुमारपाल अपने पिछले जीवन में जैनधर्म को मुख्य मानने लगा था । सिद्धराज के इष्टदेव अन्त तक शिव ही थे, किन्तु कुमारपाल के इष्टदेव पिछले जीवन में जिन थे । उसने जिनको अपना देव और आचार्य हेमचन्द्र को सद्गुरु, आप्तपुरुष और कल्याणकारी माना था। इसी प्रकार अहिंसा प्रबोधक धर्म को अपना मोक्षदायक धर्म मानकर श्रद्धापूर्वक उसका स्वीकार किया था । इस तरह वह जैनधर्म का एक आदर्श प्रतिनिधि बन गया था । इतनी पूर्व भूमिका के बाद अब मैं कुमारपाल के राजजीवन का रेखाचित्र उपस्थित करना चाहता हूँ । अशोक और कुमारपाल कुमारपाल का राजजीवन कई बातों में मौर्य सम्राट अशोक से मिलता जुलता है । राजगद्दी पर आरूढ़ होने पर जिस प्रकार सम्राट अशोक को अनिच्छा से प्रतिपक्षी राजाओं के साथ लड़ना पड़ा उसी प्रकार कुमारपाल को भी अनिच्छा से प्रतिपक्षी राजाओं के साथ लड़ने के लिए बाध्य होने पड़ा । राज्यसिंहासनारोहण के बाद तीन साल तक अशोक का शासन अस्त-व्यस्त रहा । यही हाल कुमारपाल का भी था । जिस प्रकार अशोक ७-८ वर्ष तक शत्रुओं को जीतने में व्यग्र रहा उसी प्रकार कुमारपालको भी इतने ही समय तक शत्रुओं के साथ युद्ध करने में लगा रहना पड़ा । इस तरह आठ-दश वर्ष के युद्धोपरान्त, जीवन के शेष भाग में जिस प्रकार अशोक ने प्रजा की नैतिक और सामाजिक उन्नति के लिए कई राजाज्ञाएँ निकलीं और राज्य में शान्ति एवं सुव्यवस्था बनाये रखने का प्रयत्न किया था, उसी प्रकार कुमारपाल ने भी किया । जिस प्रकार अशोक पहले शैव और फिर बौद्ध हो गया उसी प्रकार कुमारपाल भी पहले शैव था, फिर जैन हो गया । अशोक के समान ही कुमारपाल ने भी स्वीकृत धर्म के प्रचार के लिए अपनी सारी शक्ति लगा दी थी। जिस प्रकार अशोक ने बौद्धधर्म प्रतिपादित शिक्षाएँ तथा उच्च धार्मिक नियमों का स्वीकार कर ‘परमसुगतोपासक' की पदवी धारण की, उसी प्रकार कुमारपाल ने भी जैनधर्म प्रतिपादित गृहस्थ के जीवन को आदर्श बनाने वाले आवश्यक अणुव्रतादि नियमों का श्रद्धापूर्वक स्वीकार करके 'परमार्हत' का पद प्राप्त किया । अशोक के समान ही प्रजा को दुर्व्यसनों से हठाने के लिए कुमारपाल ने कई राजाज्ञाएँ निकाली थी । अशोक के बौद्ध स्तूपों की भाँति कुमारपाल ने भी कई जैन विहारों का निर्माण कराया । निर्वंश के धन का त्याग इन सब के उपरान्त कुमारपाल ने एक विशेष कार्य किया था । प्राचीन काल की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy