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________________ ५४ ने जैनधर्म का पूर्णतया अंगीकार किया था और वह एक परमार्हत राजा बना था यह सत्य कथा, संकीर्ण मनोवृत्तिवाले बहुत से अजैन विद्वानों को रुचिकर प्रतीत नहीं हुई और इसका खण्डन करने के लिए भ्रमपूर्ण लेखादि लिखे जाते रहे हैं, किन्तु उसके जैनत्व की बात उतनी ही सत्य है जितनी कि उसके अस्तित्व की है । इस विषय का विवरण प्रकट करनेवाली सामग्री अपने आप में ही इतनी प्रतिष्ठित है कि उसको सत्य सिद्ध करने के लिए किसी दूसरे सबूत की आवश्यकता नहीं है। तथ्यदर्शी यूरोपियन विद्वानों ने तो इस बात को सिद्ध कर दिया है किन्तु हम लोगों की धार्मिक संकीर्णता बहुत बार सत्य दर्शन में बाधक होती है । इसी कारण हम लोग अनेक दोषों के शिकार हो गए हैं । कुमारपाल जैन हो तो क्या और शैव हो तो क्या-मुझे तो उसमें कोई विशेषता नहीं प्रतीत होती । महत्त्व है तो उसके व्यक्तित्व का । सिद्धराज जैन न था, वह एक चुस्त शैव था इससे अगर मैं सिद्धराज का महत्त्व न समझैं तो समझ लो कि मेरी सारासारविवेकबुद्धि का दिवाला निकल गया है। अमुक व्यक्ति अमुक धर्म का अनुयायी था इतने मात्र से हम उसके व्यक्तित्व को परखने और अपनाने की उपेक्षा करें तो हम अपनी ही जातीयता-राष्ट्रीयता का अहित करते हैं । शैव हो, या वैष्णव, बौद्ध हो या जैन-धर्म से कोई भी हो-जिन्होंने अपनी प्रजा की उन्नति और संस्कृति के लिए विशिष्ट कार्य किया है वे सब हमारे राष्ट्र के उत्कर्षक और संस्कारक पुरुष हैं। ये राष्ट्रपुरुष हमारी प्रजाकीय संयुक्त अचल सम्पत्ति हैं । अगर इनके गुणों का यथार्थ गौरव हम लोग न समझें तो हम उनकी अयोग्य प्रजा सिद्ध होंगे । शैव, बौद्ध, जैन ये सारे मत एक ही आर्यतत्त्वज्ञानरूपी महावृक्ष की अलग अलग दार्शनिक शाखाओं के समान हैं । वृक्ष की विभूति उसकी शाखाओं से ही है और जब तक वृक्ष में सजीवता मौजूद है उसमें शाख-प्रशाखाएँ निकलती ही रहेंगी। शाखा-प्रशाखाओं का उद्गम बन्द हो जाना वृक्ष के जीवन का अन्त है । धर्मानुयायी और मुमुक्षु जन पक्षियों के समान हैं जो शान्ति और विश्रान्ति के लिए इस महावृक्ष का आश्रय ग्रहण करते हैं । जिस पक्षी को जो शाखा ठीक और अनुकूल प्रतीत हो वह उसीका आश्रय लेता है और शान्ति प्राप्त करता है । जिस प्रकार कोई पक्षी, अनुकूल न होने पर एक शाखा छोड़कर दूसरी शाखा का आश्रय लेता है उसी प्रकार विचारशील मानव भी स्वरुचि अनुसार किसी एक धर्म का त्याग कर धर्मान्तर ग्रहण करता है और मन:समाधि प्राप्त करता है । कुमारपाल ने भी मन:समाधि प्राप्त करने के लिए ही धर्मपरिवर्तन किया था । सात्त्विकता रूप से किया गया धर्मपरिवर्तन दोषरूप नहीं, गुणरूप होता है। ऐसे धर्मपरिवर्तन से नवीन बल और उत्साह का चार होता है । प्रजा की मानसिक और नैतिक उन्नति होती है। जैनधर्म का स्वीकार कर कुमारपाल ने जो प्रजा का अनन्य कल्याण किया था वह दूसरी तरह से करना सम्भव न था । उसके धर्मपरिवर्तन ने प्रजा के पारस्परिक विद्वेष को कम किया और सामाजिक उत्कर्ष को आगे बढ़ाया । वस्तुत: उस जमाने में आज के समान धर्मपरिवर्तन की संकुचित विचारश्रेणी नहीं थी । सामाजिक दृष्टि से धर्मपरिवर्तन कोई महत्त्वपूर्ण नहीं है । गुजरात के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
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