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________________ ४५ सत्यता आपकी अपार ग्रन्थरत्नराशी, आज भी जगत को करा रही है। आपके ग्रन्थों के समूह को देखकर पाश्चात्य विद्वान् भी, विस्मित होते हैं । वे भी आपको 'ज्ञान के महासागर' (Ocean of the Knowledge) कहकर उल्लिखित करते हैं। कहा जाता है कि आपने अपने जीव काल में ३५०००००० (साढ़े तीन क्रोड) श्लोक प्रमाण ग्रन्थ लिखे थे । परन्तु भारतवासियों के दुर्भाग्य से बहुत से ग्रन्थ तो काल के कराल गाल में दब गये-नष्ट हो गये । इतना होने पर भी, जितने ग्रन्थ वर्तमान काल में विद्यमान हैं, वे भी थोड़ी संख्यावाले नहीं हैं। विद्यमान ग्रन्थ श्रेणी ही आज विद्वत्समूह को विस्मय करा रही है । विद्या के सकल विषयों में आपकी अबाधित गति थी। कोई भी विषय ऐसा नहीं था कि जिसका आपने अवगाहन नहीं किया हो या जिसके ऊपर, अपनी चमत्कारिक लेखिनी न उठाई हो । व्याकरण, न्याय, काव्य, कोष, अलंकार, छन्द, नीति, इत्यादि सब विषयों पर आपने एक या अनेक ग्रन्थ लिखे हैं । कई कई ग्रन्थ तो ऐसे अपूर्व हैं कि जिनकी समानता करनेवाले, भारत में दूसरे ग्रन्थ ही नहीं हैं। हमारी बहुत इच्छा थी कि, हम इस लेख में आपके ग्रन्थों का विस्तार से उल्लेख करेंगे । परन्तु लेख बढ़ जाने के कारण, स्थानाभाव हो जाने से, इस इच्छा को पूरी नहीं कर सके । आपके ग्रन्थों का समूह इतना बड़ा और विचित्र है कि यदि उसका विस्तार से विवेचन किया जाय तो एक बड़ी पुस्तक ही बन जाय । शिष्यश्रेणि और शरीरान्त सूरि भगवान् का शिष्यसमूह बहुत बड़ा और प्रभावशाली था । साधुसमुदाय में, प्रबन्धशतकर्ता श्रीरामचन्द्र, महाकवि श्रीबालचन्द्र, अनेकविधासम्पन्न श्रीगुणचन्द्र, विद्याविलासी श्रीउदयचन्द्र-इत्यादि मुख्य थे । श्रावकसमुदाय में, महाराज श्रीकुमारपाल देव, महामात्य श्रीउदयन, राजपितामह आम्रभट, दण्डनायक श्रीवाग्भट, राजघरट्ट श्रीचाहड, सोलाक इत्यादि अनेक राजवर्गीय तथा लक्षावधि प्रजावर्गीय श्रीमन्तादि थे। इस प्रकार बहुत समय तक अपने ज्ञानपुंज के पवित्र प्रकाश से सूरीश्वरजी ने भारत को प्रकाशित किया । अपने आयु की समाप्ति का समय प्राप्त हुआ देख, भगवान् ने सकल शिष्यगण को समीप में बुलाया । आत्मिक उन्नति के विषय में विविध प्रकार के हितकर वचनों द्वारा अमृततुल्य उपदेश दिया, जिसे सुनकर महाराज कुमारपाल का हृदय भर आया । सूरि महाराज ने उनको सांत्वन करने के लिए अनेक मिष्ट वचन कहे । अन्तसमय में आपने निरंजन, निराकार और सहजानन्दित परमात्मा का पवित्र ध्यान धरते हुए बहिर्वासना का त्याग किया । विशुद्ध आत्मपरिणति में रमण करते हुए, निर्मल समाधिसहित दशम द्वार से प्राणत्याग किया । संवत् १२२९ में सारे समाज को शोकसमुद्र में डूबो कर, इस भूमण्डल पर से कलिकाल सर्वज्ञ भगवान् श्रीहेमचन्द्राचार्यरूप वह लोकोत्तर चन्द्र, अस्त हो गया ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
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