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कुमारपालप्रतिबोधसक्षेपः
२८५ मिच्छत्त-जोग-अविरइ-पमाय, मय-कोह-लोह-माया-कसाय । पावासव सव्वि इमे मुणेहि, जइ महसि मोक्खु ता संवरेहि ॥४२९॥ जह मंदिरि रेणु तलाइ वारि, पविसइ न किंचि ढक्किय दुवारि । पिहियासवि जीवि तहा न पावु, इय जिणिहि कहिउ संवरु पहावु ॥४३०॥ परवसु अन्नाणु जं दुहु सहेइ, तं जीवु कम्मु तणु निज्जरेइ ।
5 जा सहइ सवसु पुण नाणवंतु, निज्जरइ जिइंदिउ सो अणंतु ॥४३१।। जहिं जम्मणु मरणु न जीवि पत्तु, तं नत्थि ठाणु वालग्गमत्तु । उड्डाऽहोचउदसरज्जलोगि, इय चिंतसु निच्चु सुओवओगि ॥४३२॥ सुहकम्मनिओगिण कहवि लद्ध, बहु पावु करेविणु पुण विरुद्ध । जलनिहिचुयरयणु व दुलह बोहि, इय मुणिवि पमत्तु म जीव होहि ॥४३३।। 10 धम्मु त्ति कहंति जि पावु पाव, ते कुगुरु मुणसु निद्दयसहाव । पइ पुन्निहि दुल्लहु सुगुरु पत्तु, तं वज्जसु मा तुहु विसयसत्तु ॥४३४॥ इय बारह भावण सुणिवि राउ, मणमज्झि वियंभिय भवविराउ । रज्जु वि कुणंतु चितइ इमाउ, परिहरिवि कुगइकारणु पमाउ ॥४३५।। इय सोमप्पहकहिए, कुमारनिवहेमचंदपडिबद्धे । जिणधम्मप्पडिबोहे पत्थावो वण्णिओ तइओ ॥४३६॥ इत्याचार्यश्रीसोमप्रभविरचिते कुमारपालप्रतिबोधे तृतीयः प्रस्तावः ॥
चतुर्थः प्रस्तावः । $$३१. हेमसूरिकृतो द्वादशव्रतोपदेशः ।
अह वागरियं गुरुणा जीवदयं धम्ममिच्छमाणेण । सिवमंदिरनिस्सेणी विरई पुरिसेण कायव्वा ।।४३७।। सव्वेंदियवसगाणं समत्तपावासवा नियत्ताणं । जं अविरयाण जीवाण कहवि न वट्टइ जीवदया ॥४३८।। (जं अविरयाण कहमवि वट्टइ सम्मं न जीवदया-पाठान्तरम् ।) जइ कह वि सव्वविरइं मुणिधम्मसरूवमक्खमो काउं ।
25 ___ता देसओ वि विरई गिहत्थधम्मोचियं कुज्जा ॥४३९।।
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