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में प्रकाशित हुआ था । मुनिवर्य्य श्रीललितविजयजी मेरे एक बहुत स्नेहभाजन मुनिमित्र थे । उनके अनुरोध से मैंने, उक्त चरित के प्रास्ताविक रूप में एक छोटा सा हिन्दी निबन्ध लिख डाला था जिसमें कुमारपाल और उसके गुरु आचार्य हेमचन्द्र के विषय में कुछ स्थूल स्थूल घटनाओं का उल्लेख किया था । वि० सं० १९७० के आश्विन मास में उस निबन्ध के लिखते समय, मेरे सामने वह कोई ग्रन्थसामग्री उपलब्ध नहीं थी जिसका उल्लेख मैंने ऊपर किया है । वह मेरी प्राथमिक प्रस्तावना इसके साथ प्रकट की जा रही है । उस समय से ही, कुमारपालविषयक साहित्य जो जैन भण्डारों में छिपा पड़ा था, उसको प्राप्त करने की और प्रसिद्धि में लाने की मेरी अभिलाषा बनी रही है और उसके फलस्वरूप, उक्त रूप में सोमप्रभाचार्यविरचित कुमारपालप्रतिबोध नामक बृहत्काय प्राकृत ग्रन्थ का 'गायकवाडस् ओरिएन्टल सीरीझ' द्वारा, तथा प्रभावकचरित्र, प्रबन्धचिन्तामणि, प्रबन्धकोष, पुरातनप्रबन्धसंग्रह आदि प्रबन्धात्मक कृतियों को, इतः पूर्व प्रस्तुत सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशन किया गया है और इसी उद्देश्य की पूर्ति के रूप में प्रस्तुत चरित्रसंग्रह भी अब प्रकाश में आ रहा है ।
चौलुक्यचक्रवर्ती नृपति कुमारपाल को उसके धर्मगुरु कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने 'राजर्षि' की उपाधि दी थी। इसको लक्ष्य करके मैंने राजर्षि कुमारपाल नामका एक निबन्ध गुजराती में लिखा था जिसमें कुमारपाल के जीवन पर, अत्यन्त विश्वसनीय प्रमाणों के आधार पर, कुछ विशेष प्रकाश डालने का प्रयत्न किया था । वह निबन्ध भी इसके साथ प्रकट किया जा रहा है जिससे पाठकों को इस प्रकार की साहित्य-सामग्री का उपयोग और महत्त्व लक्षित हो सकेगा ।
इस संग्रह में संकलित एवं प्रकाशित कृतियों का कुछ परिचय निम्न प्रकार है
(१) संक्षिप्त कुमारपालचरित
इनमें पहला जो चरित है वह बहुत ही संक्षिप्त और साररूप है । इसके कुल २२१ श्लोक है । इसका कर्ता कौन है सो ज्ञात नहीं हुआ । पाटण के भण्डारों में इसकी दो-तीन पुरानी प्रतियाँ हमारे देखने में आई, जिनमें सबसे जो पुरानी प्रति है वह वि० सं० १३८५ की लिखी हुई कागज की प्रति है । इस प्रति के कुल ८ पत्र हैं जिनमें प्रथम के ६ पत्रों में यह संक्षिप्त कुमारपालचरित लिखा हुआ है और पिछले दो पन्नों में एक श्रावक और श्राविका के व्रतग्रहणविषयक प्रकरण हैं । इसके अन्त में जो उल्लेख है वह इस प्रकार है
" संवत् १३८५ वर्षे वैशाख वदि २ रवौ सूराश्रावकेण परिग्रहपरिमाणं गृहीतम् ।" इससे इतना तो निर्णीत होता है कि उक्त प्रति में जो यह कुमारपाल चरित लिखा हुआ है इसकी रचना, इस समय से पहले की है । कितनी पहले की है इसका निर्णय करने का
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