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भावार्थ:- जो प्राणी स्वयं ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट. शील गुण रहित होकर दूसरे जो ब्रह्मचर्य के पालन करने वाले हैं उनसे नमस्कार करावे वह प्राणी हूंटा लूला पंगु तथा बहरा होवे तथा बहुत दुख पावे, व ऐसे प्राणी को जो समकित हैं, वे भी दुःख से प्राप्त होते हैं.
इसलिये दया धर्म का मूल है, और जीवहिंसा पाप का मूल है। जो स्वयं हिंसा करें दूसर से हिंसा करावे, जो हिंसा करता हो उसकी प्रशंसा करे, ये तीनो जने समान पापफल भोगें । फिर जो मनुष्य पाप करता हुआ भी मन में नहीं डरता उसके हृदय में दया ही नहीं है।
तथा जो पुरुष निर्दयी होकर बहुत से एकेन्द्रिय जीवों का नाश करता है, वह प्राणी पर भव में वात, पित्त, श्लेष्मादिक अनेक रोगों को भोगता है. और जो दो इन्द्रिय जीवों का विनाश करता है वह परभव में गूंगा, तथा मुखरोग वाला व दुर्गन्ध मिश्वास युक्त होता है, और जो तीन इन्द्रिय जीवों का नाश करता है, उसे परभव में नासिका रोग होता है. और चौरिन्द्रिय जीवों का वध करता है,