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(भाव अरिहंत) जे धर्म तीर्थंकर चतुर्विध संध संस्थापन करे, महातीर्थ सम ए संघने, सुर असुर वंदन करे, ने सर्व जीवो, भूत, प्राणी, सत्त्वशुं करुणा धरे, एवा (३७)
जेने नमे छे इन्द्र, वासुदेव ने बलभद्र सहु, जेना चरणने चक्रवर्ती, पूजतां भावे बहु, जेणे अनुत्तर विमानवासी देवना संशय हण्या, एवा (३८)
जे छे प्रकाशक सह पदार्थो, जड तथा चैतन्यना, वरशुक्ल लेश्या तेरमे, गुणस्थानके परमातमा, जे अंत आयुकर्मनो, करता परम उपकारथी, एवा (३९)
लोकाग्रभागे पहोंचवाने, योग्यक्षेत्री जे बने, ... ने सिद्धनां सुख अर्पती अंतिम तपस्या जे करे,
जे चौदमा गुणस्थानके, स्थिर प्राप्त शैलेशीकरण, एवा (४०)
हर्षे भरेला देवनिर्मित, अंतिमे समवसरणे, जे शोभता अरिहंत परमात्मा जगतघर आंगणे, जे नामना संस्मरणथी, विखराय वादळ दुःखनां, एवा (४१)
जे कर्मनो संयोग वळगेलो अनादि काळथी तेथी थया जे मुक्त पूरण, सर्वथा सद्भावथी, रममाण जे निजरुपमां ने सर्वजगर्नु हित करे, एवा (४२)
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