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आकाश भूषण सूर्य जेवा, दीपता तपतेजथी, . वळी पूरता दिगंतने, करुणा उपेक्षा मैत्रीथी, हरखावता जे विश्वने, मुदिता तणा संदेशथी, एवा (२४) ।
जे शरद ऋतुना जळसमा निर्मळ मनोभावो वडे, उपकार काज विहार करता, जे विभिन्न स्थळो विषे, जेनी सहनशक्ति समीपे, पृथ्वी पण झांखी पडे, एवा (२५)
बहुपुण्यनो ज्यां उदय छे एवा भविकना द्वारने, पावन करे भगवंत निज तप, छठ अठ्ठम पारणे, स्वीकारता आहार बेंतालीस दोष विहीन जे, एवा (२६)
उपवास मासक्षमण समा, तप आकरा तपता विभु, वीरासनादि आसने, स्थिरता धरे जगना प्रभु, बावीस परिषहने सहता खुब जे अद्भुत विभु, एवा (२७)
ने बाह्य अभ्यंतर बधा, परिग्रह थकी जे मुक्त छे, प्रतिमा वहन वळी शुक्लध्याने, जे सदाय निमग्न छे, जे क्षपकश्रेणी प्राप्त करता मोहमल्ल विदारीने, एवा (२८)
(केवणज्ञान कल्याणक) जे पूर्ण केवलज्ञान, लोकालोकने अजवाळतुं, जेना महासामर्थ्य केरो, पार को नव पामतुं, ए प्राप्त जेणे चारघाती कर्मने छेदी कयुं, एवा (२९)
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