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अनंता जिनवर वरे, व्रत केवल निर्वाण; भवविश्राम अनंता लहे, जिनवचनथी जाण... श्री रे...
पावन ओ गिरि भोमका, कण कण हेम समाया; स्वर्णगिरि नामे जेह, वल्लभ पदने पाया... श्री रे...
गिरनारकं सदा...
(राग : जिनराजकुं सदा मोरी वंदना) गिरनारकुंसदा मोरी वंदना रे, गिरनारकुंसदा मोरी वंदना रे;
यात्रा नव्वाणुं करतां होवे, भवोभव पाप निकंदना रे... ॥१॥ छोरी पाळी रैवतगिरि आवी, नेमिनाथ जुहार रे;
लाख नवकार गणणुं गणीजे, पूजा नव्वाणुं प्रकार रे.... केवल दीक्षा कल्याणकभूमि, नेमिजिन चैत्य उदार रे;
प्रदक्षिणा काउस्सग्ग करीजे, अष्टोत्तर शतवार रे... चोविहार छठ्ठ करी सात यात्रा, गजपदना जले स्नान रे;
चौद चैत्य नववार नमीजे, देववंदन गुणगान रे... छओ आरे इण गिरिना, विध विध नाम वखाणो रे;
योजन छव्वीस वीस षोडश दस बे, छठेचशत हस्त मानोरे... ॥५॥ नव्वाणुं गिरि नाम भलेरा, तेहमां षट् छे मुख्य रे;
इण पावन तीर्थे आवीने, अनंत तीर्थंकर सिद्ध रे... पांचमे आरे 'गिरनार' सोहे छठे 'नंदभद्र' जणाय रे; - 'पारसगिरि' 'योगेन्द्र' 'सनातन', गिरिवर नाम कहाय रे... ॥७॥ गिरनार भक्ति रंग थकी रे, उपन्यो नेह अपार रे; __हेम वदे ओ तीरथ सेवंता, भवजल पार उतार रे... ॥८॥
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