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जब मगरमच्छ समुद्र में मुँह खोल कर मस्ती में पड़ा होता है तो लहरों के वेग में सैंकड़ों-हजारों मछलियाँ उसके मुख में आती-जाती हैं। वो तंदुल मच्छ विचार करता है कि-ये मगरमच्छ कितना आलसी है। अगर इसकी जगह मैं होता तो एकदम से मुँह बंद कर लेता और एक भी मछली को बाहर न जाने देता।
कर-करा कुछ नहीं सकता, क्यूंकि उसका शरीर ही चावल के दाने जितना है पर केवल मन के विचारों द्वारा वो कितने काले पाप कर्म इक्कट्ठे कर लेता है कि उनका भुगतान उसे नरक में जाकर देना पड़ता है। कुछ लोग कहते हैं- महाराज ! जब से जन्म लिया है, सूरत संभाली है, हमने कोई पाप नहीं किया, किसी का बुरा नहीं किया। फिर भी न जाने क्यूं हमारे जीवन में दुःख आते रहते हैं ?
ठीक है, आपने शरीर से किसी का बुरा नहीं किया पर मन से तो कितनी ही बार अपने द्वेषियों का बुरा सोचते हैं। कई लोग तो मन में भावना भाते हैं-हे प्रभु! हमारे मकान की दीवार भले ही गिर जाए लेकिन हमारे पड़ौसी की भैंस उसके नीचे आकर जरूर मर जाए। ये क्या है ? ये भी तो एक तरह का पाप ही है ना ? प्रभु महावीर ने इसे भाव हिंसा कहा है । द्रव्य हिंसा-जो बाहर से किसी को दुःख दिया जाए और । भाव हिंसा-जो भीतर से वार किया जाए ।
और ये भी याद रखो-बाहर की अपेक्षा भीतर की चोट ज्यादा खतरनाक होती है। बाहर जख्म है आप दवा लगा
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