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सद्अभ्यास होना चाहिए। सत्संग करो, सद्ग्रंथों का स्वाध्याय करो। जब आप सत्संग या स्वाध्याय करेंगे तो आपके भीतर वैराग्य की धारा बहेगी। और जब वैराग्य की परम पराकाष्ठा आ जाएगी तब 'यत्र-यत्र मनोयाति, तत्र-तत्र समाधये' जहाँ-जहाँ आपका मन जाएगा वहीं आपको समाधी की प्राप्ति हो जाएगी। पर ये अंतिम सीढ़ी है, पहले सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ना होगा। अगर सीधे ही चौबारे पर पहुंचना चाहो तो ज्यादा संभावना हाथ-पाँव टूटने की है।
'अस्थिर मन योगी बने, सचमुच में उपहास। पंगु कहे मैं भी चलूं, पैदल कोस पचास।'
वो व्यक्ति, जिसके पांव नहीं और कहे कि मैं भी 50 कोस पैदल चल सकता हूँ तो जैसे वो उपहास का पात्र बनता है ऐसे ही अस्थिर मन वाले साधक की अवस्था होती है।
महार्षि वेद व्यास शिष्यों को पढ़ा रहे थे। पढ़ाते-पढ़ाते 'मन' का प्रसंग आ गया और वो कहने लगे-एक बाप को अपनी जवान बेटी के साथ, एक नौजवान भाई को अपनी जवान बहन के साथ एकांत में नहीं बैठना चाहिए। क्यूं ? क्यूंकि ये मन बड़ा चंचल है।
___ उनके प्रमुख शिष्य जयमणि ने कहा-गुरु जी! और सारी बातें तो जंच गई पर ये नहीं जची। क्या आदमी इतना गया-बीता है कि उसका मन अपनी बेटी या बहन पर ही खराब हो जाए? महार्षि वेद व्यास ने कहा-देखो, अब तो संध्या का समय हो रहा है, इस विषय पर फिर चर्चा करेंगे।
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