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In सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
षट्त्रिंश अध्ययन [562 ]
जो सतत रोष-क्रोध को प्रसारित करता है, निमित्त प्रतिसेवी (ज्योतिष विद्या का दुष्प्रयोग करना) होता है, वह इन कारणों से आसुरी भावना करता है॥ २६६ ॥
One, who continuously radiates anger and makes evil use of augury, is said to have embraced aasuri (demonic) sentiment. (266)
सत्थग्गहणं विसभक्खणं च, जलणं च जलप्पवेसो य।
अणायार-भण्डसेवा, जम्मण-मरणाणि बन्धन्ति ॥ २६७॥ जो शस्त्र प्रयोग से, विष भक्षण से, आग में जलकर, पानी में डूबकर आत्मघात करता है तथा अनाचार करता है, भांड़ों जैसी कुचेष्टा करता है (अथवा साध्वाचार से विरुद्ध भाण्ड-उपकरण रखता है) वह (मोही-सम्मोही भावना का आचरण करता हुआ) जन्म-मरणों का बन्धन करता है॥२६७ ॥
One who commits suicide by using a weapon, consuming poison, burning himself or drowning; and acts like a clown or uses prohibited ascetic-equipment is said to get trapped into cycles of death and rebirth as a consequence of embracing mohi or sammohi (obsessive) sentiment. (267)
इइ पाउकरे बुद्धि, नायए परिनिव्वुए। छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धीयसंमए॥२६८॥
-त्ति बेमि। इस तरह भव्य जीवों के लिए संमत (प्रिय-इच्छा करने योग्य-इष्ट) छत्तीस श्रेष्ठ अध्ययनों को प्रगट करके समस्त पदार्थों के ज्ञाता सर्वज्ञ-सर्वदर्शी ज्ञातवंशीय भगवान महावीर परिनिवृत्त-मुक्त (निर्वाण को प्राप्त) हुए॥ २६८॥
-ऐसा मैं कहता हूँ। Thus after revealing (propounding) (aforesaid) thirty-six chapters (of Uttaraadhyayana Sutra), which are beneficial for worthy persons, the enlightened, omniscient and all perceiving, Bhagavan Mahavir of Jnata clan attained liberation. (268)
- So I say.
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विशेष स्पष्टीकरण गाथा ५-पदार्थ के दो रूप हैं-खण्ड और अखण्ड। धर्मास्तिकाय आदि अरूपी अजीव वस्तुतः अखण्ड द्रव्य हैं। फिर भी उनके स्कन्ध, देश, प्रदेश के रूप में तीन भेद किए हैं। धर्मास्तिकाय स्कन्ध में देश और प्रदेश वास्तविक नहीं, बुद्धि-परिकल्पित हैं। एक परमाणु जितना क्षेत्रावगाहन करता है, वह अविभागी विभाग, अर्थात् फिर भाग होने की कल्पना से रहित सर्वाधिक सूक्ष्म अंश प्रदेश कहलाता है। अनेक प्रदेशों से परिकल्पित स्कन्धगत छोटे-बड़े नाना अंश देश कहलाते हैं। पूर्ण अखण्ड द्रव्य स्कन्ध कहलाता है। धर्म और अधर्म अस्तिकाय स्कन्ध से एक हैं। उनके देश और प्रदेश असंख्य हैं। असंख्य के असंख्य ही भेद होते हैं, यह ध्यान में रहे। आकाश के अनन्त प्रदेश होते हैं। लोकाकाश के असंख्य और अलोकाकाश के अनन्त होने से अनन्त प्रदेश हैं। वैसे आकाश स्कन्धतः एक ही है।