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[563 ] षट्त्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
गाथा ६-काल को अद्धा-समय कहा है। यह इसलिए कि समय के सिद्धान्त आदि अनेक अर्थ होते हैं। अद्धा के विशेषण से वह वर्तनालक्षण कालद्रव्य का ही बोध कराता है। स्थानांगसूत्र (४/१/२६४) की अभयदेवीय वृत्ति के अनुसार काल का सूर्य की गति से सम्बन्ध रहता है। अतः दिन-रात आदि के रूप में काल अढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र में ही है, अन्यत्र नहीं। काल में देश-प्रदेश की परिकल्पना सम्भव नहीं है, क्योंकि वह निश्चय में समय रूप होने से निर्विभागी है। अतः उसे स्कन्ध और अस्तिकाय भी नहीं माना है।
गाथा ७-समय क्षेत्र-जहाँ समय, आवलिका, पक्ष, मास, वर्ष आदि काल परिमंडल का ज्ञान होता है। जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड तथा अर्ध-पुष्कर द्वीप-समय क्षेत्र अथवा मनुष्य क्षेत्र कहलाते हैं।
गाथा ९-अपरापरोत्पत्ति रूप प्रवाहात्मक सन्तति की अपेक्षा से काल अनादि-अनन्त है। किन्तु दिन, रात आदि प्रतिनियत व्यक्तिस्वरूप की अपेक्षा सादि-सान्त है। .
गाथा १०-पुद्गल के स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु चार भेद हैं। मूल पुद्गल द्रव्य परमाणु ही है। उसका दूसरा भाग नहीं होता है, अतः वह निरंश होने से परमाणु कहलाता है। दो परमाणुओं से मिलकर एकत्व परिणति रूप द्विप्रदेशी तंस स्कन्ध होता है। इसी प्रकार त्रिप्रदेशी आदि से लेकर अनन्तानन्त प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। पुद्गल के अनन्त स्कन्ध हैं। परमाणु स्कन्ध में संलग्न रहता है, तब उसे प्रदेश कहते हैं और जब वह पृथक् अर्थात् अलग रहता है, तब वह परमाणु
... कहलाता है। गाथा १३, १४-पुद्गल द्रव्य की स्थिति से अभिप्राय यह है कि जघन्यतः
चउरंस एक समय तथा उत्कृष्टतः असंख्यात काल के बाद स्कन्ध आदि रूप से रहे हुए पुदगल की संस्थिति में परिवर्तन हो जाता है। स्कन्ध बिखर जाता है तथा परमाणु भी स्कन्ध में संलग्न होकर प्रदेश का रूप ले लेता है।
अन्तर से अभिप्राय है-पहले के अवगाहित क्षेत्र को छोड़कर पुनः उसी विवक्षित क्षेत्र की अवस्थिति को प्राप्त होने में जो व्यवधान होता है, वह बीच का अन्तर काल।
आयत गाथा १५ से ४६ - पुद्गल के असाधारण धर्मों में संस्थान भी एक धर्म है। संस्थान के दो भेद हैं-(१) इत्थंस्थ, और (२) अनित्थंस्थ। जिसका त्रिकोण . आदि नियत संस्थान हो, वह इत्थंस्थ कहलाता है, और जिसका कोई नियत संस्थान न हो, उसे अनित्थंस्थ कहते हैं। इत्थंस्थ के पाँच प्रकार हैं-(१) परिमण्डल-चूड़ी की तरह गोल, (२) वत्त-गेंद की तरह गोल, (३) त्र्यंम्र-त्रिकोण, (४) चतुरस्र-चौकोन, और (५) आयत-बाँस या रस्सी की तरह लम्बा। (चित्र देखें)
पुद्गल के वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श आदि इन्द्रियग्राह्य भाव हैं, अत: उनका वर्णन विस्तार से किया गया है। कृष्णादि वर्ण, गन्ध आदि से भाज्य होते हैं, तब कृष्णादि प्रत्येक पाँच वर्ण २० भेदों से गुणित होने पर वर्ण पर्याय के कुल १०० भंग होते हैं। इसी प्रकार सुगन्ध के २३ और दुर्गन्ध के २३, दोनों के मिलकर गन्ध पर्याय के ४६ भंग होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक रस के बीस-बीस भेद मिलाकर रस पंचक के संयोगी भंग १०० होते हैं। मृदु आदि प्रत्येक स्पर्श के सतरह-सतरह भेद मिलाकर आठ स्पर्श के १३६ भंग होते हैं।