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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
त्रिंश अध्ययन [ 558]
इइ जीवमजीवे य, सोच्चा सद्दहिऊण य । सव्वनयाण अणुमए, रमेज्जा संजमे मुणी ॥ २४९॥
इस जीव और अजीव की व्याख्या को सुनकर, उन पर श्रद्धा करके सभी प्रकार की ज्ञान व क्रिया, नयों से अनुमत (नैगम आदि सर्व नयों से अनुमत - सत्यत: प्रमाणित ) संयम में मुनि रमण करे ॥ २४९ ॥ Having listened to the definitions of soul (life) and non-soul (matter) substances that are in accordance with rules of logic and resting faith in the same, the ascetic should sincerely indulge in practice of restraint. (249)
संलेखना : साधक की अन्तिम साधना
तओ बहूणि वासाणि, सामण्णमणुपालिया । इमेण कमजोगेण, अप्पाणं संलिहे मुणी ॥ २५० ॥
इसके उपरान्त बहुत वर्षों तक श्रमणधर्म का पालन करके मुनि इस क्रम योग से आत्मा की संलेखना (विषय- कषायादि विकारों की क्षीणता) करे ॥ २५० ॥
Samllekhana: The ultimate vow
After this, following the ascetic code for many years the ascetic should cleanse his soul (destroy passions and fondness for sensual pleasures) by observing the ultimate vow of Samllekhana in the following sequence. (250)
भवे ।
बारसेव उ वासाईं, संलेहुक्कोसिया
संवच्छरं मज्झिमिया, छम्मासा य जहन्निया ॥ २५१ ॥
बारह वर्ष की संलेखना उत्कृष्ट, एक वर्ष की मध्यम और जघन्य संलेखना छह मास की होती है ॥ २५१ ॥
Maximum duration of the ultimate vow is of twelve years, the medium is of one year and the minimum is of six months. (251)
पढमे वासचउक्कम्मि, विगईनिज्जूहणं करे । बिइ वासच उक्कम्मि, विचित्तं तु तवं चरे ॥ २५२ ॥
पहले चार वर्षों में दूध-दही - घी - तेल आदि विकृति कारक पदार्थों का त्याग करे तथा दूसरे चार वर्षों में विविध प्रकार के तपों का आचरण (तपश्चरण) करे ॥ २५२ ॥
During the first four years, the ascetic should renounce the passion causing (harmful) food like milk, curd, ghee (butter-oil), oil etc. In the following four years ( 5th to 8th) he should indulge in various austerities. (252)
दुवे |
एगन्तरमायामं, कट्टु संवच्छरे तओ संवच्छरद्धं तु, नाइविगिट्टं तवं चरे ॥ २५३॥
फिर दो वर्षों तक (नवें - दसवें वर्ष में) एकान्तर तप ( एक दिन तप, एक दिन पारणा ) करके पारणे के दिन आचाम्ल (आयंबिल) करे। फिर ग्यारहवें वर्ष के पहले छह माह में तेला- चौला - पचौला आदि अतिविकृष्ट तपं न करे ॥ २५३ ॥