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[557 ] षट्त्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्रता
अजहन्नमणुक्कोसा, तेत्तीसं सागरोवमा।
महाविमाण-सव्वटे, ठिई एसा वियाहिया॥२४४॥ सर्वार्थसिद्ध महाविमानवासी देवों की न जघन्य और न उत्कृष्ट-एक जैसी आयुस्थिति तेतीस सागरोपम की होती है॥ २४४ ।।
The maximum and minimum life-span of gods in the Sarvarthasiddha great celestial vehicle is same, thirty-three Sagaropam. (244)
जा चेव उ आउठिई, देवाणं तु वियाहिया।
सा तेसिं कायठिई, जहन्नुक्कोसिया भवे॥२४५ ॥ देवों की (उपर्युक्त गाथाओं में) जो आयुस्थिति बताई गई है, वही उनकी जघन्य और उत्कृष्ट कायस्थिति होती है॥ २४५॥
The maximum and minimum life-span for the body-type of gods mentioned in aforesaid verse is same as their respective life-spans. (245)
अणन्तकालमुक्कोसं, अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं।
विजढंमि सए काए, देवाणं हुज्ज अन्तरं ॥२४६॥ देवों का अपने देव शरीर को छोड़कर पुनः देव शरीर प्राप्त करने में जो काल का व्यवधान-अन्तर होता है वह उत्कृष्ट रूप से अनन्तकाल का तथा जघन्य रूप से अन्तर्मुहूर्त का है॥ २४६॥
The maximum intervening period between once leaving the body-type (divine body), (taking rebirth in other body-types and moving in cycles of rebirth as other body-types) and again taking rebirth in the same body-type (divine body) is infinite time and the minimum is one Antarmuhurt. (246)
एएसिं वण्णओ चेव, गन्धओ रसफासओ।
संठाणादेसओ वा वि, विहाणाइं सहस्सओ॥२४७॥ इन सभी देवों के-वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से हजारों प्रकार हो जाते हैं॥२४७॥
These divine beings are also of thousands of kinds with regard to colour, smell, taste, touch and constitution. (247) उपसंहार और साधक को निर्देश
संसारत्था य सिद्धा य, इइ जीवा वियाहिया।
रूविणो चेवऽरूवी य, अजीवा दुविहा वि य॥२४८॥ संसारस्थ (संसारी) तथा सिद्ध-इन दोनों प्रकार के जीवों का कथन किया गया है। साथ ही रूपी और अरूपी दोनों प्रकार के अजीवों का भी वर्णन हो गया॥ २४८॥ Conclusion and directions
This concludes the description of both worldly and liberated souls. At the same time this, also concludes the description of non-life (matter) with and without form. (248)