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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
षट्त्रिंश अध्ययन [ 540]
लोगस्स एगदेसम्मि ते सव्वे उ वियाहिया । एत्तो कालविभागं तु, वुच्छं तेसिं चउव्विहं ॥ १५८ ॥
वे सभी नैरयिक (नारकी) जीव लोक के एकदेश ( अंश या भाग) में ही हैं- ऐसा कहा गया है। अब इससे आगे मैं उन नारकी जीवों का चार प्रकार का कालविभाग कहूँगा ॥ १५८ ॥
All these infernal beings are said to exist only in one section of the universe (Lok) and not in the whole. Now I will describe the fourfold division of infernal beings with regard to time. (158)
संतई पप्पऽणाईया, अपज्जवसिया वि य । . ठि पडुच्च साईया, सपज्जवसिया वि य ॥ १५९ ॥
संतति - प्रवाह की अपेक्षा से नारक जीव अनादि और अनन्त हैं तथा स्थिति की अपेक्षा से वे सादि और सान्त भी हैं ॥ १५९ ॥
In context of continuity these (infernal beings) are beginningless and endless. However, in context of existence at a particular place they have a beginning as well as end. (159)
सागरोवममेगं तु, उक्कोसेण वियाहिया । पढमाए जहन्नेणं, दसवाससहस्सिया ॥ १६० ॥
प्रथम-रत्नाभा या रत्नप्रभा नरक पृथिवी में नैरयिक जीवों की आयुस्थिति उत्कृष्टतः एक सागरोपम की और जघन्यत: दस हजार वर्ष की बताई गई है ॥ १६० ॥
The maximum life-span of infernal beings in the first hell (Ratnaprabha prithvi) is said to be one Sagaropam and minimum ten thousand years. (160)
तिण्णेव सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया ।
दोच्चाए जहन्नेणं, एगंतु सागरोवमं ॥ १६९ ॥
दूसरी शर्कराभा या शकर्राप्रभा नरक पृथिवी में नैरयिक- नारकी जीवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति तीन सागरोपम की और जघन्य आयुस्थिति एक सांगरोपम की कही गई है ॥ १६१ ॥
The maximum life-span of infernal beings in the second hell (Sharkaraabha prithvi) is said to be three Sagaropam and minimum one Sagaropam. (161)
सत्तेव सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । तइयाए जहन्नेणं, तिण्णेव उ सागरोवमा ॥ १६२ ॥
तीसरी बालुकाभा या बालुकाप्रभा नरक पृथिवी के नैरयिकों - नारकी जीवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति सात सागरोपम की और जघन्य आयुस्थिति तीन सागरोपम की कही गई है ॥ १६२ ॥
The maximum life-span of infernal beings in the third hell (Balukaabha prithvi) is said to be seven Sagaropam and minimum three Sagaropam. (162)
दस सागरोवमा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । चउत्थीए जहन्नेणं, सत्तेव उ सागरोवमा ॥ १६३ ॥