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[23] द्वितीय अध्ययन
६. अचेल परीषह
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
'परिजुण्णेहि वत्थेहिं, होक्खामि त्ति अचेलए' । अदुवा ' सचेलए होक्खं', इइ भिक्खू न चिन्ता ॥ १२ ॥ 'एगयाऽचेलए होइ, सचेले यावि एगया' । एवं धम्महियं नच्चा, नाणी नो परिदेवए ॥ १३ ॥
वस्त्रों के अधिक जीर्ण हो जाने-फट जाने से मैं अचेलक हो जाऊँगा अथवा नये वस्त्र मिल जाने से सचेलक (नये वस्त्रधारी) बन जाऊँगा - श्रमण इस प्रकार का विचार न करे ॥ १२॥
परिस्थितियों के कारण ‘साधु कभी अचेलक भी होता है और कभी सचेलक भी होता है।' दोनों ही स्थितियों को धर्म के लिये हितकारी मानकर ज्ञानी श्रमण कभी आंकुल व्याकुल न हो, दुःख न करे ॥ १३ ॥
6. Achela-parishaha (Garb related affliction )
An ascetic should not entertain such thoughts-'If my garb gets torn and tattered I will become a garbless ascetic (achelak or sky-clad).' or 'If I get new garb I will become a cloth-clad ascetic (sachelak).' (12)
Depending on circumstances, an ascetic is sometimes sky-clad and sometimes clothclad. Considering both the conditions equally conducive to religious practices an enlightened ascetic should never be disturbed or sad. (13)
७. अरति परीषह
गामाणुगामं रीयन्तं, अणगारं अकिंचणं । अरई अणुष्पविसे, तं तितिक्खे परीसहं ॥ १४ ॥ अरइं पिट्ठओ किच्चा, विरए आय - रक्खिए । धम्मारामे निरारम्भे, उवसन्ते मुणी चरे ॥ १५ ॥
ग्रामानुग्राम विचरण करते हुये अनिकेत अकिंचन श्रमण के मन-मस्तिष्क में कभी संयम के प्रति अरति (अरुचि) उत्पन्न हो जाये तो उस परीषह को समभाव से सहे ॥ १४ ॥
विषयों से विरक्त, आरम्भत्यागी, आत्मरक्षक मुनि अरतिभाव को दूर कर धर्मरूपी उद्यान में स्थिर होकर उपशमभावों में रमण करे ॥ १५ ॥
7. Arati-parishaha (Affliction related to disturbance in ascetic-discipline)
Wandering from village to village if on occasion an ascetic, without money and shelter, is mentally plagued by apathy for ascetic-discipline (samyam), he should endure this affliction with equanimity. (14)
An ascetic, who is passive to sensual pleasures, renounces sins and is self-protecting, should remove the apathy, remain firmly in the garden of religion and indulge in pacification of passions. ( 15 )