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[501] पंचत्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
तसाणं थावराणं च, सुहुमाण बायराण य । तम्हा गिहसमारम्भं, संजओ परिवज्जए ॥ ९॥
(गृह-निर्माण में) त्रस और स्थावर जीवों का तथा सूक्ष्म और बादर (स्थूल) जीवों का वध होता है इसलिए संयमी साधक गृह निर्माण (समारम्भ) का सर्वथा परित्याग कर दे ॥ ९ ॥
In construction of a house mobile and immobile beings as well as minute and gross living beings are killed. Therefore, a restrained ascetic should completely renounce (the sinful act of) construction of a house. (9)
(५) पंचम सूत्र : आहार पचन - पाचन निषेध
भत्तपाणे,
पण - पावणे य पाण- भूयदयट्ठाए, न पये न पयावए ॥ १० ॥
इसी प्रकार भक्त और पान (आहार तथा जल) के पकाने और पकवाने के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये कि इसमें भी जीवों की हिंसा होती है। अतः प्राणी और भूतों की दया के लिए (भिक्षु) न स्वयं (भक्त-पान) पकाये और न किसी दूसरे से पकवाये ॥ १०॥
5. Fifth point : Negation of cooking food
In the same way it should be known about cooking and getting cooked food and water that this also involves violence towards living beings. Therefore, out of compassion for living beings, an ascetic should neither cook by himself nor should cause others to cook for him. (10)
जल - धन्ननिस्सिया जीवा, पुढवी - कट्ठनिस्सिया । हम्मान्ति भत्तपाणेसु, तम्हा भिक्खू न पायए॥ ११ ॥
जल, धान्य, पृथ्वी और काष्ठ (ईंधन) के आश्रित बहुत से जीव होते हैं उनका हनन (हिंसा) हो जाता है, इस कारण भिक्षु न स्वयं पकाये और न दूसरे से पकवाये ॥ ११॥
There are innumerable beings in water, grain, earth and wood (fuel), and they are killed (while cooking). Therefore an ascetic should neither cook nor cause others to cook. (11)
विसप्पे सव्वओधारे, बहुपाणविणासणे । थि जोइसमे सत्थे, तम्हा जोई न दीवए ॥ १२ ॥
अग्नि के समान दूसरा कोई शस्त्र नहीं है। यह सभी ओर फैल जाता है तथा तीक्ष्ण धार वाला है, बहुत जीवों का विनाशक- प्राणघातक है, इसलिए अग्नि (ज्योति) दीपित - प्रज्वलित न करे ॥ १२ ॥
There is no (other dangerous) weapon like fire. It spreads in all directions, is sharp edged and destroyer of many living beings; therefore he (ascetic) should not light fire. (12)
(६) छठा सूत्र : क्रय-विक्रय वृत्ति-निषेध, भिक्षावृत्ति का विधान
हिरण्णं जायरूवं य, मणसा वि न पत्थए । समलेट्ठकंचणे भिक्खू, विरए कयविक्कए ॥ १३ ॥