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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
चतुस्त्रिंश अध्ययन [ 494 ]
The rebirth of souls is guided by soul-complexions only during the intervening period between one Antarmuhurt after the beginning and one Antarmuhurt before the end of their said manifestation (association with soul). (60)
तम्हा
एयाण लेसाणं, अणुभागे वियाणिया । अप्पसत्थाओ वज्जित्ता, पसत्थाओ अहिट्टेज्जासि ॥ ६१ ॥
-त्ति बेमि ।
इसीलिए (विवेकी व्यक्ति) इन लेश्याओं के अनुभाग (विपाक - रस - विशेष) को जानकर इनमें से अप्रशस्त (कृष्ण, नील, कापोत) लेश्याओं को वर्जित - परित्याग करके प्रशस्त (तेजो, पद्म, शुक्ल) लेश्याओं में अधिष्ठित - स्थिर हो जाए ॥ ६१ ॥
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
Therefore a wise man should know about the duration-bondage (of various classes) of these soul-complexions, avoid the ignoble ones (black, blue and grey) and establish himself firmly in noble ones (red, yellow and white). (61) -So I say.
विशेष स्पष्टीकरण
गाथा १ - कर्मलेश्या का अर्थ है - कर्मबन्ध के हेतु रागादि भाव । लेश्यायें भाव और द्रव्य के भेद से दो प्रकार की हैं। कुछ आचार्य कषायानुरंजित योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं । इस दृष्टि से यह छद्मस्थ व्यक्ति को ही हो सकती हैं । किन्तु शुक्ललेश्या १३वें गुणस्थानवर्ती केवली को भी है, अयोगीकेवली को नहीं । अतः योग की प्रवृत्ति ही लेश्या है । कषाय तो केवल उसमें तीव्रता आदि का संनिवेश करती है। आवश्यकचूर्णि में जिनदास महत्तर ने कहा
"लेश्याभिरात्मनि कर्माणि संश्लिष्यन्ते । योगपरिणामो लेश्या । जम्हा अयोगिकेवली अलेस्सो ।" गाथा ११ - त्रिकटुक से अभिप्राय सूंठ, मिरच और पिप्पल के एक संयुक्त योग से है।
गाथा २० - जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट के भेद से सर्वप्रथम लेश्या के तीन प्रकार हैं। जघन्य आदि तीनों के फिर जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट के भेद से तीन-तीन प्रकार होने से नौ भेद होते हैं। फिर इसी प्रकार क्रम से त्रिक की गुणन प्रक्रिया से २७, ८१ और २४३ भेद होते हैं। यह एक संख्या की वृद्धि का स्थूल प्रकार है। वैसे तारतम्य की दृष्टि से संख्या का नियम नहीं है। स्वयं उक्त अध्ययन (गा. ३३) में प्रकर्षापकर्ष की दृष्टि से लोकाकाश प्रदेशों में परिमाण के अनुसार असंख्य स्थान बताये हैं। अशुभ लेश्याओं के संक्लेशरूप परिणाम हैं और शुभ के विशुद्ध परिणाम हैं।
गाथा ३४ - मुहूर्त्तार्ध शब्द से एक समय से ऊपर और पूर्ण मुहूर्त्त से नीचे के सभी छोटे-बड़े अंश विवक्षित हैं। इस दृष्टि से मुहूर्त्तार्ध का अर्थ अन्तर्मुहूर्त्त है।
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गाथा ३८ – यहाँ पद्मलेश्या की एक मुहूर्त्त अधिक दस सागर की स्थिति जो बताई है, उसमें मुहूर्त से पूर्व एवं उत्तरभव से सम्बन्धित दो अन्तर्मुहूर्त्त विवक्षित हैं।