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[495 ] चतुस्त्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र in
नीललेश्या आदि के स्थिति वर्णन में जो पल्योपम का असंख्येय भाग बताया है उसमें भी पूर्वोत्तर भव सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त्तद्वय प्रक्षिप्त हैं। फिर भी सामान्यतः असंख्येय भाग कहने से कोई हानि नहीं है क्योंकि असंख्येय के भी असंख्येय भेद होते हैं।
गाथा ४५-४६-तिर्यंच और मनुष्यों में जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही रूप से लेश्याओं की स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। यह भावलेश्या की दृष्टि से कथन है। छद्मस्थ व्यक्ति के भाव अन्तर्मुहूर्त से अधिक एक स्थिति में नहीं रहते। ___परन्तु यहाँ केवला अर्थात् शुद्ध शुक्ललेश्या को छोड़ दिया है, क्योंकि सयोगीकेवली की उत्कृष्ट केवला पर्याय नौ वर्ष कम पूर्वकोटि है और सयोगीकेवली को एक जैसे अवस्थित भाव होने से उनकी शुक्ललेश्या की स्थिति भी नववर्षन्यून पूर्वकोटि की है।
गाथा ५२-मूल पाठ में गाथाओं का व्यत्यय जान पड़ता है। ५२ के स्थान पर ५३वीं और ५३ के स्थान पर ५२वीं गाथा होनी चाहिये। क्योंकि ५१वीं गाथा मैं आगमकार ने भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक सभी देवों की तेजोलेश्या के कथन की प्रतिज्ञा की है। किन्तु ५२वीं गाथा में केवल वैमानिक देवों की ही तेजोलेश्या निरूपित की है, जबकि ५३वीं गाथा में प्रतिपादित लेश्या का कथन चारों ही प्रकार के देवों की अपेक्षा से है। टीकाकारों ने भी इस विसंगति का उल्लेख किया है।
गाथा ५८-५९-प्रतिपत्तिकाल की अपेक्षा से छहों ही लेश्याओं के प्रथम समय में जीव का परभव में जन्म नहीं होता है और न अन्तिम समय में ही। लेश्या की प्राप्ति के बाद अन्तर्मुहूर्त बीत जाने पर और अन्तर्मुहूर्त ही शेष रहने पर जीव परलोक में जन्म लेते हैं।
भाव यह है कि मृत्युकाल में आगामी भव की और उत्पत्तिकाल में अतीत भव की लेश्या का अन्तर्मुहूर्त काल तक होना आवश्यक है। देवलोक और नरक में उत्पन्न होने वाले मनुष्य और तिर्यंचों को मृत्युकाल में अन्तर्मुहूर्त काल तक अग्रिम भव की लेश्या का सद्भाव होता है। मनुष्य और तिर्यंचगति में उत्पन्न होने वाले देव व नारकों को भी मरणानन्तर अपने पहले भव की लेश्या अन्तर्महत काल तक रहती है। अतएव आगम में देव और नारकों की लेश्या का पहले और पिछले भव के लेश्या सम्बन्धी दो अन्तर्मुहूर्त के साथ स्थितिकाल बताया गया है। प्रज्ञापनासूत्र में कहा है-"जल्लेसाई दव्वाइं आयइत्ता कालं करेई, तल्लेसेसु उववज्जइ।"
(सन्दर्भ : उत्तराध्ययनसूत्र-साध्वी श्री चन्दना जी)
TRATA IMPORTANT NOTES
HIRAIMERA
Verse 1-The meaning of karma-leshya is the feelings (bhaava) of attachment and the like, which are causes of karmic-bondage. The leshyas (soul-complexions) are of two types-mental and physical. Some acharyas opine that leshya is the passion flavoured tendency to associate with activities. From this angle it can exist only in man who is unrighteous (chhadmasth). But the white soul-complexion exists in Kevali (omniscient) too, who is at the thirteenth Gunasthan. Only the omniscient who has completely dissociated himself from association (yoga) with activities is devoid of soul-complexions. Therefore it is the tendency of association (yoga) that is soul-complexion. Passions merely account for attributes like intensity. (Leshyaabhiraatmaani karmaani samshlishyante. Yoga Parinaamo leshya. Jamhaa ayogikevali alesso. - Aavashyaka Churni by Jinadas Mahattar)