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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
निर्जन एकान्त पथों में भी तीव्र तृषा से व्याकुल होने पर, यहाँ तक कि मुँह (कण्ठ) सूख जाने ...पर भी साधु दीनभाव से रहित होकर तृषा की पीड़ा को सहन करे ॥ ५ ॥
2. Pipasa-parishaha (Affliction of thirst)
An ascetic, apprehensive of any lapse in ascetic-discipline, should not drink cool water (natural and sachit or infested with living organism) even when tormented by thirst, instead he should search for pure water (@chit or free of living organism). (4)
[21] द्वितीय अध्ययन
Even while wandering on desolate paths and tortured by extreme thirst, so much so that his mouth gets dry, an ascetic should endure the affliction of thirst without a feeling of dismay. (5)
३. शीत परीषह
चरन्तं विरयं लूहं, सीयं फुसइ एगया । नाइवेलं मुणी गच्छे, सोच्चाणं जिणसासणं ॥ ६ ॥ 'न में निवारणं अस्थि, छवित्ताणं न विज्जई ।
अहं तु अग्गिं सेवामि' - इह भिक्खू न चिन्तए ॥ ७ ॥
पापों से विरक्त और (स्निग्ध भोजन न करने के कारण) रूक्ष शरीर वाला साधु विचरण करते हुये कभी शीत (ठंड) से पीड़ित हो जाये तो भी जिनशासन ( वीतराग के उपदेशों) को सुन-समझकर स्वाध्याय आदि साधुचर्या के काल का उल्लंघन न करे - यथाकाल साधु-नियमों का पालन करे ॥ ६ ॥
शीत की अधिकता से पीड़ित मुनि ऐसा न सोचे कि 'मेरे पास शीत की बाधा का निवारण करने के लिये न तो अच्छा मकान है और न कंबल आदि ही है; न अग्नि का सेवन करके शीत की बाधा को शांत कर लूँ' ॥७॥
3. Sheet-parishaha (Affliction of cold )
If an ascetic, averse to sins and with parched body (due to avoiding fatty food), happens to be oppressed by cold while wandering, even then, being aware of and familiar with the Jain Order (the preaching of the detached one), he should not neglect the schedule of ascetic praxis including self-study (he should stick to the schedule of ascetic code). (6)
Tormented by extreme cold the ascetic should not think that-'I neither have proper shelter, nor a blanket or other form of protection against the discomfort of cold, as such why not lit fire to remove this discomfort of cold?' (7) ४. उष्ण परीषह
उसिण - परियावेणं, परिदाहेण तज्जिए । घिंसु वा परियावेणं, सायं नो परिदेवए ॥ ८ ॥ उहाहितत्ते मेहावी, सिणाणं नो वि पत्थए । गायं नो परिसिंचेज्जा, न वीएज्जा य अप्पयं ॥ ९ ॥