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[461] द्वात्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
भावाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि?
तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥९७॥ भाव में अनुरक्त मनुष्य को कदाचित्, किंचित् सुख भी कहाँ हो सकता है? जिस उपभोग के लिए वह दुःख सहता है, उस उपभोग में भी क्लेश-दु:ख बना रहता है।। ९७ ।।
Thus when, where and how much happiness can a person, infatuated with pleasant feelings gain? For gaining that he suffers so much misery and even while enjoying the same he again suffers only pain and misery. (97)
एमेव भावम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ।
पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से गुणो होइ दुहं विवागे॥२८॥ इसी प्रकार जो (अप्रिय-असुखकर) भाव के प्रति द्वेष करता है, वह अनेक दुःखों की परम्पराओं को पाता है। प्रदुष्ट (द्वेष से क्लिष्ट) हृदय वाला व्यक्ति जिन कर्मों का संचय करता है, वही कर्म विपाक काल में उसके लिए दु:ख के हेतु बनते हैं ॥ ९८॥
In the same way one who hates repulsive feelings also suffers a variety of miseries in succession; and the karmas he accumulates due to aversion-filled mind also come to fruition as pain. (98)
भावे विरत्तो विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण। . न लिप्पई भवमझे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥९९॥ भाव से विरक्त मानव शोक-मुक्त बन जाता है। जिस प्रकार कमलिनी का पत्र (पत्ता) जल में रहता हुआ भी जल से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार वह मानव संसार में रहता हुआ भी अनेक दुःख परम्पराओं से लिप्त नहीं होता ॥ ९९॥
(But) A person apathetic to feelings is not aggrieved; he remains free from these sequences of misery. As a lotus leaf, though in a pond, remains unaffected by water, in the same way that person remains unaffected (by attachment and aversion for feelings), though living in the world. (99)
एविन्दियत्था य मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो।
ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं, न वीयरागस्स करेन्ति किंचि॥१००॥ इस प्रकार जो इन्द्रियों और मन के विषय हैं, वे रागी मनुष्य के लिए दुःख के कारण हैं। वे ही विषय वीतराग के लिए कदापि और किंचित् भी दुःखरूप नहीं बनते हैं॥ १०० ॥
Thus the objects of senses and mind are causes of pain for a person with attachment. However, the same never cause even slightest pain to the detached one. (100)
न कामभोगा समयं उवेन्ति, न यावि भोगा विगई उवेन्ति।
जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेइ॥१०१॥ कामभोग (अपने आप में) न तो समता-समभाव उत्पन्न करते हैं और न ही वे भोग विकृति पैदा करते हैं। जो उनके प्रति प्रद्वेष और परिग्रह (ममत्व-राग) रखता है वह उनमें मोह के कारण विकृति को प्राप्त करता है। १०१ ॥