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र सोचेंत्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वात्रिंश अध्ययन [462]
Sensual pleasures and comforts do not induce equanimity on their own nor do they generate perversion of lustful indulgence. One who has aversion and attachment for them gets perverted out of his own fondness (infatuation) for them. (101)
कोहं च माणं च तहेव माय, लोहं दुगुंछ अरइं रइं च।
हासं भयं सोगपुमिथिवेयं, नपुंसवेयं विविहे य भावे॥१०२॥ क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, शोक, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद तथा अन्य विविध भावों को-॥१०२॥
Anger, conceit, deceit, greed, disgust, non-indulgence in restraint, indulgence in sensual pleasures, mirth, fear, grief, male, female and neutral gender awareness and various other sentiments-(102)
आवज्जई एवमणेगरूवे, एवंविहे कामगुणेसु सत्तो।
अन्ने य एयप्पभवे विसेसे, कारुण्णदीणे हिरिमे वइस्से॥१०३॥ इसी तरह अनेक प्रकार के विकारों को कामगुणों में आसक्त जीव प्राप्त करता है तथा इन भावों से प्राप्त होने वाले नरकादि दुःखों को पाता है तथा वह करुणास्पद, हीन, लज्जित और द्वेष का पात्र बन जाता है॥ १०३॥
And likewise numerous other perversions plague the person who is infatuated with carnal pleasures and as a consequence suffers torments including rebirth in hell; thereby he becomes pitiable, lowly, shameful and an object of aversion. (103)
कप्पं न इच्छिज्ज सहायलिच्छू, पच्छाणुतावेय तवप्पभावं।
एवं वियारे अमियप्पयारे, आवज्जई इन्दियचोरवस्से॥१०४॥ (वीतराग के पथ का पथिक साधु) अपने शरीर की सेवा सहायता की लिप्सा से योग्य शिष्य की इच्छा न करे, दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् पश्चात्ताप करके अथवा अनुतप्त होकर तप के प्रभाव की भी इच्छा न करे; क्योंकि इस प्रकार की इच्छाओं से साधक इन्द्रिय चोरों के वश में होकर अनेक प्रकार के विकारों-दोषों से ग्रस्त हो जाता है, उनको प्राप्त कर लेता है॥ १०४॥
(An ascetic following the path of detachment) should not wish for an able disciple with a yearning for service and help of his own body. After accepting initiation he should also not desire for fruits of his austerities out of remorse or anger. This is because due to such desires the aspirant comes under influence of thief-like senses and is gripped by many perversions and faults. (104)
तओ से जायन्ति पओयणाइं, निमज्जिउं मोहमहण्णवम्मि।
सुहेसिणो दुक्खविणोयणट्ठा, तप्पच्चयं उज्जमए य रागी॥१०५॥ ___ तब (कषायों, नोकषायों, विकारों से ग्रस्त होने के पश्चात्) उस सुखाभिलाषी साधक अथवा व्यक्ति को मोहरूपी महासागर में डुबोने के लिए, दुःखों के निवारण के लिए (आरम्भ, परिग्रह, आदि रूप) अनेक प्रजोजन उत्पन्न-उपस्थित होते हैं, वह रागी (द्वेषी तथा मोही भी) व्यक्ति उन कल्पित दुःखों से मुक्त होने का प्रयास-उद्यम करता है॥ १०५॥