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[447] द्वात्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
एगन्तरत्ते रुइरंसि सद्दे, अतालिसे से कुणई पओसं।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥ ३९॥ जो रुचिर (प्रिय) शब्दों में एकान्त रूप से अत्यधिक आसक्त होता है और अतादृश (प्रतिकूल) शब्द में प्रद्वेष करता है वह अज्ञानी दु:ख के समूह से पीड़ा प्राप्त करता है। लेकिन विरागी मुनि उसमें लिप्त नहीं होता (निर्लिप्त रहता है) ॥ ३९॥
He who gets exclusively and excessively infatuated with enchanting sound is averse to repulsive sound. That ignorant suffers pain. But the detached ascetic does not get involved in them (pleasant and unpleasant sound), does not have attachment or aversion for them. (39)
सद्दाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे।
चित्तेहि ते परियावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिटे॥४०॥ (मनोज्ञ) शब्द की इच्छा करने वाला अनेक प्रकार से चराचर-त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने ही स्वार्थ को प्रधानता देने वाला क्लिष्ट अज्ञानी व्यक्ति उन्हें (उन जीवों को) विभिन्न प्रकार से परितापित और पीड़ित करता है॥ ४०॥
A person hankering for pleasant sound indulges in violence towards mobile and immobile beings many ways. Giving importance to his self-interest and tarnished with attachment and aversion, an ignorant being torments those beings various ways. (40)
सदाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खण-सन्निओगे।
वए विओगे य कहिं सुहं से ?, संभोगकाले य अतित्तिलाभे॥४१॥ शब्द के प्रति अधिक अनुराग और ममत्व (परिग्रह) के कारण उसके उत्पादन (उत्पन्न करने) एवं रक्षा करने, सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में सुख कहाँ है? उसके उपभोग समय में भी अतृप्ति ही मिलती है, तृप्ति प्राप्त नहीं होती ॥ ४१॥
How can a man derive happiness on account of love and fondness for (pleasant) sound while he creates, protects, associates (trades and exchanges), expends and loses the same things that enhance sweetness of sound)? Even when he enjoys them he feels unsatisfied, does not ever experience satiety. (41)
सद्दे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुटुिं।
अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥४२॥ शब्द में अतृप्त और परिग्रह में प्रगाढ़ आसक्त व्यक्ति को तुष्टि प्राप्त नहीं होती। असंतुष्टि के दुःख से दुःखी तथा लोभ से व्याकुल व्यक्ति दूसरों की अदत्त वस्तुओं को ले लेता है-चोरी करता है॥ ४२ ॥
A person, not satiated with (pleasant) sounds and intensely obsessed with acquiring them, never gains satisfaction. Aggrieved with the drawback of discontentment and overwrought by greed, such person takes belongings of others without being given (steals). (42)