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तर सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वात्रिंश अध्ययन [446]
(But) a person apathetic to appearances is not aggrieved; he remains free from these sequences of misery. As a lotus leaf, though in a pond, remains unaffected by water, in the same way that person remains unaffected (by attachment and aversion for appearances), though living in the world. (34)
सोयस्स सदं गहणं वयन्ति, तं रागहेडं तु मणुनमाहु।
तं दोसहेउं अमणुनमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो॥३५॥ श्रोत्र (कर्णेन्द्रिय) के विषय को शब्द कहा गया है। जो शब्द राग का हेतु है उसे मनोज्ञ कहा है और अमनोज्ञ को द्वेष का कारण बताया गया है लेकिन जो इन दोनों (मनोज्ञ और अमनोज्ञ) में सम-समभाव रखता है, वह वीतराग है॥ ३५ ॥
That which perceives (hears) sound is called ear. If it (sound) is pleasant then it becomes the cause of attachment and if it is unpleasant it becomes the cause of aversion. He who remains equanimous (beyond attachment and aversion) in both the conditions is detached. (35)
सदस्स सोयं गहणं वयन्ति, सोयस्स सदं गहणं वयन्ति।
रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु॥३६॥ शब्द को ग्रहण करने वाला श्रोत्र कहा गया है और शब्द को श्रोत्र का ग्राहक (ग्रहण करने योग्य विषय) बताया गया है। उसमें जो शब्द राग का हेतु होता है उसे समनोज्ञ और द्वेष के हेतु को अमनोज्ञ कहा गया है॥ ३६॥
That which hears sound is called ear and the object of hearing by ear is called sound. The cause of attachment is called pleasant and the cause of aversion is unpleasant. (36)
सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं।
रागाउरे हरिणमिगे व मुद्धे, सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्चुं॥ ३७॥ जो (मनोज्ञ) शब्दों में तीव्र गृद्धि-आसक्ति रखता है वह राग में आतुर व्यक्ति अकाल में ही विनष्ट हो जाता है, ठीक उसी प्रकार जिस तरह शब्द में अत्यासक्त मूढ़ बना हुआ हरिण (मृग-पशु) मृत्यु को प्राप्त करता है, मर जाता है॥ ३७॥ .
One who is infatuated with pleasant sound is plagued by attachment to end up in untimely ruin, just as a deer, obsessed by sound (music), is drawn into death. (37)
जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसिक्खणे से उ उवेइ दुक्खं।
दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू, न किंचि सदं अवरज्झई से॥३८॥ और जो (अमनोज्ञ) शब्द के प्रति तीव्र द्वेष करता है वह प्राणी उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष के कारण दुःख का उपार्जन करता है। इसमें शब्द का किंचित् भी अपराध (दोष) नहीं होता ॥ ३८॥
Contrary to this, he who is intensely averse (to unpleasant sound) instantly suffers pain due to his own insurmountable aversion. There is no fault of sound (pleasant or unpleasant) in this. (38)