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[445] द्वात्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
Overwhelmed by craving, the thief of others' belongings not satiated with appearance and possessions finds that his deceit and lies continue to multiply due to his vice of greed; however, he still (in spite of employing deceit and lie) fails to be emancipated from miseries. (30)
मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरन्ते।
एवं अदत्ताणि समाययन्तो, रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥३१॥ झूठ बोलने से पहले और बाद में तथा असत्य का प्रयोग (बोलते) करते समय भी वह दुःखी होता है और उसका परिणाम (अन्त) भी द:खमय होता है। इस प्रकार अदत्तादान (चोरी) का आचरण करता हुआ तथा रूप से अतृप्त व्यक्ति दु:खी और अनाश्रित (आश्रयविहीन-निराधार) हो जाता है।॥३१॥
He becomes sorrowful before, after and even while telling a lie and the consequences of the act too are painful. Thus the person indulging in theft and also dissatisfied with appearance, becomes miserable and without refuge. (31)
रूवाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि?
तत्थोवभोगे वि किलेस दुक्खं, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥३२॥ इस प्रकार रूप में अनुरक्त-आसक्त पुरुष को कहाँ, कब और कितना सुख प्राप्त हो सकता है? जिसे प्राप्त करने के लिए मनुष्य इतना दुःख-कष्ट सहता है। उसके उपभोग में भी क्लेश और दुःख का ही अनुभव होता है॥ ३२॥
Thus when, where and how much happiness can a person, infatuated with appearances gain? For gaining that he suffers so much misery and even while enjoying 'the same he again suffers only pain and misery. (32)
एमेव रूवम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ।
पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥ ३३॥ इसी तरह रूप के प्रति प्रद्वेष करने वाला भी अनेक प्रकार की दुःख परम्पराओं को प्राप्त करता है और वह प्रद्वेषयुक्त चित्त वाला होकर जिन कर्मों का संचय करता है वे कर्म भी विपाक-फल प्रदान करते समय दुःखरूप ही होते हैं ॥ ३३॥
In the same way one who hates appearances also suffers a variety of miseries in succession; and the karmas he accumulates due to aversion-filled mind also come to fruition as pain. (33)
रूवे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण।
न लिप्पए भवमज्झे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥३४॥ (किन्तु) रूप से विरक्त (राग-द्वेषहीन) व्यक्ति को शोक नहीं होता, वह इन दुःखों की परम्पराओं से मुक्त रहता है। जिस प्रकार जलाशय में पुष्करिणी में रहता हुआ कमल का पत्ता जल से निर्लिप्त रहता है उसी तरह वह मनुष्य भी संसार में रहता हुआ भी (रूप के प्रति राग-द्वेष से) लिप्त नहीं होता ॥ ३४॥