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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वात्रिंश अध्ययन [448]
तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे य।
मायामुसं वड्ढ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से॥४३॥ तृष्णा से अभिभूत, अदत्त वस्तुओं को ग्रहण करने-हरण करने-चुराने वाला, शब्द और परिग्रह से अतृप्त होने वाले व्यक्ति का उसके लोभ जनित दोष के कारण कपट और झूठ बढ़ता जाता है। लेकिन कपट और झूठ के प्रयोग से भी उसका दु:ख नहीं मिटता ॥ ४३ ॥
Overwhelmed by craving, the thief of others' belongings, not satiated with sound and possessions finds that his deceit and lies continue to multiply due to his vice of greed; however, he still (in spite of employing deceit and lie) fails to be emancipated from miseries. (43)
मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरन्ते।
एवं अदत्ताणि समाययन्तो, सद्दे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥४४॥ मृषा (झूठ) बोलने से पहले, बोलने के पश्चात् और बोलते समय भी वह दु:खी होता है और उसका अन्त-परिणाम भी दुःखरूप होता है। इस तरह शब्द में अतृप्त (व्यक्ति) अदत्तादान-चोरियाँ करता हआ द:खी तथा अनाश्रित हो जाता है॥४४॥
He becomes sorrowful before, after and even while telling a lie and the consequences of the act too are painful. Thus the person indulging in theft and also not satiated with sound, becomes miserable and without refuge. (44)
सद्दाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि?
तत्थोवभोगे वि किलेस दुक्खं, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं॥४५॥ इस तरह शब्द में अनुरक्त-आसक्त मनुष्य को कहाँ, कब और कितने सुख की प्राप्ति हो सकती है? जिसके लिए वह इतने क्लेश और कष्ट सहन करता है तथा उसके (उस सुख के) उपभोग में भी उसे क्लेश और कष्ट का ही अनुभव होता है॥ ४५ ॥
Thus when, where and how much happiness can a person, infatuated with sounds gain? For gaining that he suffers so much misery and even while enjoying the same he again suffers only pain and misery. (45)
एमेव सद्दम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ।
पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥ ४६॥ इसी तरह जो अमनोज्ञ-अप्रिय शब्दों में प्रद्वेष करता है वह भी अनेक प्रकार की दु:ख परम्पराओं-परिपाटियों को उत्पन्न करता है और प्रदुष्टचित्त से वह जिन कर्मों का संचय करता है वही पुनः विपाक-फलप्रदान के समय दुःखरूप ही होते हैं। ४६ ॥
In the same way one who hates sounds also suffers a variety of miseries in succession; and the karmas he accumulates due to aversion-filled mind also come to fruition as pain. (46)
सद्दे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण। न लिप्पए भवमझे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥४७॥