________________
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
एकत्रिंश अध्ययन [428]
५. तप-अनशन आदि बारह प्रकार का तप करना। ६. संयम-हिंसा आदि आस्रवों का निरोध करना। ७. सत्य-सत्य भाषण करना, झूठ न बोलना। ८. शौच-संयम में दूषण न लगाना, संयम के प्रति निरुपलेपता-पवित्रता रखना। ९. आकिंचन्य-परिग्रह न रखना। १०. ब्रह्मचर्य-ब्रह्मचर्य का पालन करना। ग्यारह उपासक प्रतिमायें-(देखें समवायांग ११) बारह भिक्षु प्रतिमायें-(देखें समवायांग १२) तेरह क्रियास्थान-(देखें समवायांग १३) चौदह भूतग्राम-जीवसमूह
(१) सूक्ष्म एकेन्द्रिय, (२) बादर एकेन्द्रिय, (३) द्वीन्द्रिय, (४) त्रीन्द्रिय, (५) चतुरिन्द्रिय, (६) असंज्ञी पंचेन्द्रिय, और (७) संज्ञी पंचेन्द्रिय। इन सातों के पर्याप्त और अपर्याप्त-कुल चौदह भेद होते हैं। इनकी विराधना करना, किसी भी प्रकार की पीड़ा देना वर्जित है। (समवायांगसूत्र)
पंद्रह परमाधार्मिक-परम-अधार्मिक अर्थात् पापचारी क्रूर एवं निर्दय असुर जाति के देव हैं। इनके हिंसाकर्मों का अनुमोदन नहीं करना।
गाथा षोडशक(सूत्रकृतांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६ अध्ययन) सत्रह प्रकार का असंयम
१-९. पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय-उक्त नौ प्रकार के जीवों की हिंसा करना, कराना, अनुमोदन करना।
१०. अजीव असंयम-अजीव होने पर भी जिन वस्तुओं के द्वारा असंयम होता हो, उन बहुमूल्य वस्त्र-पात्र आदि का ग्रहण करना अजीव असंयम है।
११. प्रेक्षा असंयम-जीवसहित स्थान में उठना, बैठना, सोना आदि। १२. उपेक्षा असंयम-गृहस्थ के पापकर्मों का अनुमोदन करना। १३. अपहृत्य असंयम-अवधि से किसी अनुपयोगी वस्तु का परठना। इसे परिष्ठापना असंयम भी कहते हैं। १४. प्रमार्जना असंयम-वस्त्र-पात्र आदि की प्रमार्जना न करना। १५. मनः असंयम-मन में दुर्भाव रखना। १६. वचन असंयम-कुवचन या असत्य बोलना। १७. काय असंयम-गमनागमनादि क्रियाओं में असावधान रहना। (समवायांग १७) अठारह अब्रह्मचर्य
देव-सम्बन्धी भोगों का मन, वचन और काय से स्वयं सेवन करना, दूसरों से करवाना तथा करते हुए को भला जानना-इस प्रकार नौ भेद वैक्रिय शरीर सम्बन्धी होते हैं। मनुष्य तथा तिर्यंच सम्बन्धी औदारिक भोगों के भी इसी तरह नौ भेद समझ लेने चाहिये। कुल मिलाकर अठारह भेद होते हैं। (समवायांग १८)