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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
इक्कीस शबल दोषों और बाईस परीषहों में जो भिक्षु सदा यतना (उपयोगवान) रखता है, वह संसार में प्ररिभ्रमण नहीं करता ॥ १५ ॥
[425] एकत्रिंश अध्ययन
The ascetic who is always careful about twenty-one blemishes (faults in conduct) and twenty-two afflictions does not stay in the cycle. (15)
अ।
तेवीसइ सूयगडे, रूवाहिएसु सुरेसु भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥ १६ ॥
जो भिक्षु सूत्रकृतांगसूत्र के तेईस अध्ययनों और (चौबीस प्रकार के ) अत्यन्त सुन्दर रूप वाले देवों में उपयोगवान (यतनाशील) रहता है, वह संसार में नहीं रुकता ॥ १६ ॥
The ascetic who is always careful about twenty-three chapters of Sutrakritanga Sutra and twenty-four types of powerful divine beings does not stay in the cycle. (16) पणवीस - भावणाहिं, उद्देसे दसाइणं । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥ १७॥
. जो भिक्षु (पाँच महाव्रतों की) पच्चीस भावनाओं और दशाश्रुतस्कन्ध आदि के (छब्बीस) उद्देशकों में सदा यतनावान (उपयोगयुक्त) रहता है, वह संसार में नहीं रुकता ॥ १७॥
The ascetic who is always careful about twenty-five supporting sentiments (of five great vows) and chapters of Dashashrutaskandha etc. (twenty-six) does not stay in the cycle: (17)
अणगारगुणेहिं च, पकप्पम्मि तहेव य ।
जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥ १८ ॥
जो भिक्षु (सत्ताईस प्रकार के) अनगार गुणों में और प्रकल्प ( आचार - प्रकल्प - आचारांग के अट्ठाईस अध्ययन) में सदा उपयोगयुक्त-यतनाशील रहता है, वह संसार में नहीं रुकता ॥ १८ ॥
The ascetic who is always careful about the virtues of an ascetic (twenty-seven) and Prakalp (twenty-eight chapters of Achaar-Prakalp or Acharanga Sutra) does not stay in the cycle. (18)
पावसुयपसंगे, मो चेव य। जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥ १९ ॥
जो भिक्षु (उन्तीस प्रकार के) पापश्रुत प्रसंगों और मोहस्थानों (तीस प्रकार के महामोहनीय कर्मबन्ध के स्थानों) में सदा यतनाशील रहता है, वह संसार में नहीं ठहरता ॥ १९ ॥
The ascetic who is always careful about incidents from sinful scriptures (twentynine) and sources of delusion (thirty causes of bondage of intensely deluding karmas) does not stay in the cycle. (19)
सिद्धाइगुणजोगेसु,
य।
तेत्तीसासायणा जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥ २० ॥