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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
एकत्रिंश अध्ययन [422 ]
एगतीसइमं अज्झयणं : चरणविही एकत्रिंश अध्ययन : चरण-विधि Chapter-31 : MODE OF CONDUCT
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चरणविहिं पवक्खामि, जीवस्स उ सुहावहं।
जं चरित्ता बहू जीवा, तिण्णा संसारसागरं ॥१॥ जीव (प्राणियों) के लिए सुखकारी चरण-विधि को मैं कहता हूँ, जिसका आचरण करके बहुत से जीव संसार-सागर को तर गये हैं॥१॥
I describe the mode of conduct, which bestows happiness to souls (living beings) and practicing which innumerable souls have crossed the worldly ocean. (1)
एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पवत्तणं।
असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं॥२॥ (साधक) एक ओर से विरति (निवृत्ति) करे और एक ओर प्रवृत्ति करे; असंयम से निवृत्ति करे और संयम में प्रवृत्ति करे॥२॥
An aspirant should desist from one and indulge in the other; he should desist from indiscipline and practise restrain. (2)
रागद्दोसे य दो पावे, पावकम्मपवत्तणे।
जे भिक्खू रुम्भई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले॥३॥ पापकर्म में प्रवृत्त करने वाले राग और द्वेष हैं। जो भिक्षु इन दोनों को सदा-नित्य रोकता हैनिरोध करता है, वह मण्डल (जन्म-मरण रूप संसार) में नहीं रहता ॥ ३॥
Attachment and aversion push towards sinful activity. The ascetic who always resists the two does not stay in the cycle (the cycles of rebirths and deaths in this world). (3)
दण्डाणं गारवाणं च, सल्लाणं च तियं तियं।
जे भिक्खू चयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले॥४॥ जो भिक्षु तीन प्रकार के दण्डों, तीन प्रकार के गौरवों और तीन प्रकार के शल्यों का सदा त्याग करता है, वह मण्डल (संसार) में नहीं रहता॥ ४॥
The ascetic, who always renounces the three sets of-three types of self-inflictions (dand), three types of conceits (gaurava) and three types of internal thorns (shalya)does not stay in the cycle. (4)
दिव्वे य जे उवसग्गे, . तहा तेरिच्छ-माणुसे। जे भिक्खू सहई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले॥५॥