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________________ [415] त्रिंश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्रत (६) प्रकीर्ण तप-यह तप श्रेणि आदि निश्चित पदों की रचना किये बिना ही अपनी शक्ति और इच्छा के अनुसार किया जा सकता है। नौकारसी से लेकर यवमध्य, वज्रमध्य, चन्द्रप्रतिमा से लेकर १५ तक बढ़ाना और फिर क्रमशः घटाते हुए एक उपवास पर आ जाना आदि प्रकीर्ण तप है। गाथा १२-मरणकाल का आमरणान्त अनशन संथारा कहा जाता है। वह सविचार और अविचार भेद से दो प्रकार का है। सविचार में उद्वर्तन-परिवर्तन (करवट बदलने) आदि की हरकत होती है, अविचार में नहीं। भक्त प्रत्याख्यान और इङ्गिनीमरण सविचार होते हैं। भक्त प्रत्याख्यान में साधक स्वयं भी करवट आदि बदल सकता है, दूसरों से भी इस प्रकार की सेवा ले सकता है। यह संथारा दूसरे भिक्षुओं के साथ रहते हुए भी हो सकता है। यह इच्छानुसार त्रिविधाहार अथवा चतुर्विधाहार के प्रत्याख्यान से किया जा सकता है। . इङ्गिनीमरण संथारा में अनशनकारी एकान्त में एकाकी रहता है। यथाशक्ति स्वयं तो करवट आदि बदलने की क्रियायें कर सकता है, किन्तु इसके लिये दूसरों से सेवा नहीं ले सकता। गिरिकन्दरा आदि शून्य स्थानों में किया जाने वाला पादपोपगमन संथारा अविचार ही होता है। जैसे वृक्ष जिस स्थिति में गिर जाता है उसी स्थिति में पड़ा रहता है, उसी प्रकार पादपोपगमन में भी प्रारंभ में साधक जिस आसन का उपयोग करता है अन्त तक उसी आसन में रहता है, आसन आदि बदलने की कोई भी चेष्टा नहीं करता है। ___ गाथा १३-अथवा यह मरणकालीन अनशन सपरिकर्म (बैठना, उठना, करवट बदलना आदि परिकर्म सहित) और अपरिकर्म भेद से दो प्रकार का है। भक्त प्रत्याख्यान और इङ्गिनी सपरिकर्म होते हैं और पादपोपगमन अपरिकर्म ही होता है। अथवा संलेखना के परिकर्म से सहित और उससे रहित को भी क्रमशः सपरिकर्म और अपरिकर्म कहा जाता है। वर्ष आदि पूर्वकाल से ही अनशनादि तप करते हुए शरीर को, साथ ही इच्छाओं, कषायों और विकारों को निरन्तर क्षीण करना संलेखना है, अन्तिम मरणकालीन क्षण की पहले से ही तैयारी करना है। ___ गाँव से बाहर जाकर जो संथारा किया जाता है वह नियरिम है, और गाँव में ही किया जाता है वह अनिर्हारिम है। अथवा जिसके शरीर का मरणोत्तर अग्नि-संस्कार आदि होता है वह निर्हारिम है और जो गिरिकन्दरा आदि शून्य स्थानों में संथारा किया जाता है, फलतः जिसका अग्नि-संस्कार आदि नहीं होता है वह अनिर्हारिम है। विस्तार के लिये लिखे देखें-शान्त्याचार्य कृत बृहद् वृत्ति (औपपातिकसूत्र तथा उत्तराध्ययन-साध्वी चन्दना जी) ___ गाथा १६-१७-१८-जहाँ कर लगते हों वह ग्राम है और जहाँ कर न लगते हों, वह नगर है, अर्थात् न कर। निगम-व्यापार की मण्डी। आकर-सोने आदि की खान। पल्ली-वन में साधारण लोगों की या चोरों की बस्ती। खेट-धूल-मिट्टी के कोट वाला ग्राम। कर्बट-छोटा नगर। द्रोणमुख-जिसके आने-जाने के जल और स्थल दोनों मार्ग हों। पत्तन-जहाँ सभी ओर से लोग आते हों। मंडब-जिसके पास सब ओर अढाई योजन तक कोई दूसरा गाँव न हो। सम्बाध-ब्राह्मण आदि चारों वर्ण के लोगों का जहाँ प्रचुरता से निवास हो। आश्रमपद-तापस आदि के आश्रम। विहार-देव-मन्दिर। संनिवेश-यात्री लोगों के ठहरने का स्थान अर्थात् पड़ाव। समाज-सभा और परिषद् । घोष-गोकुल। स्थली-ऊँची जगह, टीला आदि। सेना और स्कन्धावार (छावनी) प्रसिद्ध है। सार्थ-सार्थवाहों के साथ चलने वाला जनसमूह। संवर्त-जहाँ के लोग भयत्रस्त हों। कोट्ट-प्राकार, किला आदि। वाड-जिन घरों के चारों ओर काँटों की बाड़ या तार आदि का घेरा हो। रथ्या-गाँव और नगर की गलियाँ (बृहवृत्ति)।
SR No.002494
Book TitleAgam 30 mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages726
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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