________________
[401] एकोनत्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
विशेष स्पष्टीकरण
गाथा ७ – “करणगुणश्रेणि" एक आध्यात्मिक विकास का दिग्दर्शक शब्द है । अपूर्वकरण से होने वाली गुणक कर्मनिर्जरा की श्रेणि को "करण गुण श्रेणि" कहते हैं। करण का अर्थ आत्मा का विशुद्ध परिणाम है। अध्यात्म विकास की आठवीं भूमिका (गुणस्थान) का नाम अपूर्वकरण गुणस्थान है। यहाँ परिणामों की धारा इतनी विशुद्ध होती है, जो पहले कभी नहीं होने के कारण अपूर्व कहलाती है। आगामी क्षणों में उदित होने वाले मोहनीय कर्म के अनन्त प्रदेशी दलिकों को उदयकालीन प्राथमिक क्षण में लाकर क्षय कर देना, भाव विशुद्धि की एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। प्रथम समय से दूसरे क्षण में असंख्यात गुण अधिक कर्मपुद्गलों का क्षय होता है, दूसरे से तीसरे में असंख्यात गुण अधिक और तीसरे से चौथे में असंख्यात गुण अधिक। इस प्रकार कर्मनिर्जरा की यह तीव्र गति प्रत्येक समय से अगले समय में असंख्यात गुण अधिक होती जाती है और यह कर्मनिर्जरा की धारा असंख्यात समयात्मक एक मुहूर्त्त तक चलती है।
इसे क्षपक श्रेणी भी कहते हैं। क्षपक श्रेणी आठवें गुणस्थान से प्रारम्भ होती है।
मोहनाश की दो प्रक्रियायें हैं जिसमें मोह का क्रम से उपशम होते-होते अन्त में वह सर्वथा उपशान्त हो जाता है, अन्तर्मुहूर्त के लिये उसका उदय में आना बंद हो जाता है, उसे उपशम श्रेणि कहते हैं और जिसमें मोह क्षीण होते-होते अन्त में सर्वथा क्षीण हो जाता है, मोह का एक दलिक भी आत्मा पर शेष नहीं रहता, वह क्षपक श्रेणि है। क्षपक श्रेणि से ही कैवल्य प्राप्त होता है।
संक्षेप में आठवें गुणस्थान से जो क्षपक श्रेणि प्राप्त होती है, उसे ही लक्ष्य करके करण गुण श्रेणि कहा है।
सूत्र १५ – एक, दो या तीन श्लोक से होने वाली गुणकीर्तना स्तुति होती है और तीन से अधिक श्लोकों वाली स्तुति को स्तव कहते हैं। वैसे दोनों का भावार्थ एक ही है- भक्तिपूर्वक गुणकीर्तन ।
सूत्र ७१ - कषायभाव में ही कर्म का स्थितिबन्ध होता है। केवल मन, वचन, काय के कषायरहित व्यापार रूप योग से तो दीवार पर लगे सूखे गोले की तरह ज्यों ही कर्म लगता है, लगते ही झड़ जाता है। क्योंकि उसमें राग-द्वेषजन्य स्निग्धता नहीं है । केवलज्ञानी को भी जब तक वे सयोगी रहते हैं, चलते-फिरते, उठते-बैठते हर क्षण योगनिमित्तक दो समय की स्थिति का सुखस्पर्श रूप कर्म बँधता रहता है। अयोगी होने पर वह भी नहीं ।
सूत्र ७३-अ, इ, उ, ऋ, लृ - ये पाँच ह्रस्व अक्षर हैं। इतना काल १४वें अयोगी गुणस्थान की भूमिका का होता है। तदनन्तर आत्मा देहमुक्त होकर सिद्ध हो जाता है।
शुक्लध्यान का अर्थ है - समुच्छिन्न क्रिया वाला एवं पूर्ण कर्म क्षय करने से पहले निवृत्त नहीं होने वाला पूर्ण निर्मल शुक्लध्यान | यह शैलेशी - अर्थात् शैलेश मेरु पर्वत के समान सर्वथा अकम्प, अचल आत्म-स्थिति है। इसे समुच्छिन्न क्रिया अनिवृत्ति शुक्लध्यान कहते हैं।
सूत्र ७४ - गति दो प्रकार की होती है - (१) ऋजु गति, (२) वक्र गति ।
मुक्त आत्मा का ऊर्ध्वगमन ऋजु श्रेणी अर्थात् समश्रेणी से होता है। यह एक समय में सम्पन्न होती है।
गति के अनेक भेद हैं- स्पृशद् गति, अस्पृशद् गति आदि । जीव जब परमाणु पुद्गलों व स्कन्धों को स्पर्श करता हुआ गति करता है, उस गति को स्पृशद् गति कहते हैं।
मुक्त जीव अस्पृशद् गति के ऊपर जाते हैं।
अस्पृशद् गति के अनेक अर्थ हैं
वृहद्वृत्ति के अनुसार अर्थ है- "जितने आकाश-प्रदेशों को जीव यहाँ अवगाहित किये रहता है, उतने ही प्रदेशों को स्पर्श करता हुआ गति करता है, उसके अतिरिक्त एक भी आकाश-प्रदेश को नहीं छूता है। अस्पृशद् गति का यह अर्थ नहीं कि मुक्त आत्मा आकाश-प्रदेशों को स्पर्श ही नहीं करता।"