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[385 ] एकोनत्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
सूत्र ३५-उवहिपच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
उवहिपच्चक्खाणेणं अपलिमन्थं जणयइ। निरुवहिए णं जीवे निक्कंखे, उवहिमन्तरेण य न संकिलिस्सई।
सूत्र ३५-(प्रश्न) भगवन् ! उपधि (उपकरणों) के प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है?
(उत्तर) उपधि के प्रत्याख्यान से जीव अपरिमन्थ-स्वाध्याय-ध्यान में निर्विघ्नता प्राप्त करता है। उपधिरहित जीव आकांक्षा से मुक्त होकर उपधि के अभाव में संक्लेश नहीं पाता है।
Maxim 35 (Q). Bhante ! What does ajiva (soul/living being) obtain by renouncing equipment (upadhi-pratyakhyan)?
(A). By renouncing equipment a being accomplishes unobstructed study and meditation. A being not possessing equipment becomes free of desire and does not feel distressed in absence of equipment. . सूत्र ३६-आहारपच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
आहारपच्चक्खाणेणं जीवियासंसप्पओगं वोच्छिन्दइ। जीवियासंसप्पओगं वोच्छिन्दित्ता जीवे आहारमन्तरेणं न संकिलिस्सइ॥
सूत्र ३६-(प्रश्न) भगवन् ! आहार के प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है?
(उत्तर) आहार के प्रत्याख्यान से जीव जीवित रहने की लालसा को विच्छिन्न कर देता है। जीवन की आशंसा (कामना) को तोड़ देने से वह आहार के अभाव में भी संक्लेशित नहीं होता।
Maxim 36 (Q). Bhante! What does a jiva (soul/living being) obtain by renouncing food intake (ahaar-pratyakhyan)?
(A). By renouncing food intake a being shatters the lust for life. By loosing hope for life he becomes immune to grief even when food is not available.
सूत्र ३७-कसायपच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
कसायपच्चक्खाणेणं वीयरागभावं जणयइ। वीयरागभावपडिवन्ने वि य णं जीवे समसुहदुक्खे भवइ॥ ।
सूत्र ३७-(प्रश्न) भगवन् ! कषाय के प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है?
(उत्तर) कषाय के प्रत्याख्यान से जीव को वीतरागभाव की प्राप्ति होती है। वीतरागभाव से संपन्न जीव सुख-दुःख में सम-समभाव वाला हो जाता है।
Maxim 37 (Q). Bhante! What does a jiva (soul/living being) obtain by renouncing passions (kashaya-pratyakhyan)? ___ (A). By renouncing passions a being attains the state of non-attachment. A being endowed with state of non-attachment remains equanimous in happiness and misery.
सूत्र ३८-जोगपच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?