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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
सूत्र ३३ - विणियट्टणयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
विणियट्टणयाए णं पावकम्माणं अकरणयाए अब्भुट्ठेइ । पुव्वबद्धाण य निज्जरणयाए तं नियत्तेइ, तओ पच्छा चाउरन्तं संसारकन्तारं वीइवयइ ॥
एकोनत्रिंश अध्ययन [ 384 ]
सूत्र ३३ - ( प्रश्न) भगवन् ! विनिवर्तना ( मन और इन्द्रियों की विषय-वासना से निवृत्ति पराङ्मुखता) से जीव क्या प्राप्त करता है ?
(उत्तर) विनिवर्तना से जीव पापकर्मों को न करने के लिये उद्यत रहता है और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करके कर्मों से निवृत्त हो जाता है । तदुपरान्त चतुर्गति रूप संसार वन का अतिक्रमण - (पार) कर जाता है।
Maxim 33 (Q). Bhante ! What does a jiva (soul / living being) obtain by apathy for the mundane ( vinivartana ) ?
(A). By apathy for the mundane a being acquires the readiness to desist from sinful deeds and becomes free of accumulated karmas by shedding them. After that he crosses the wilderness of cycles of rebirth (samsar) world in the form of four realms.
सूत्र ३४ – संभोगपच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
संभोग पच्चक्खाणेणं आलम्बणाइं खवेइ । निरालम्बणस्स य आययट्टिया जोगा भवन्ति । लाभे संतुस्सइ, परलाभं नो आसाएइ, नो तक्केइ, नो पीहेड़, नो पत्थेइ, नो अभिसलइ । परलाभं अणासायमाणे, अतक्केमाणे, अपीहेमाणे, अपत्थेमाणे, अणभिलसमाणे दुच्चं सुहसेज्जं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ।
सूत्र ३४ – (प्रश्न) भगवन् ! संभोग-प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ?
(उत्तर) सम्भोग (परस्पर सहभोजन - मण्डली भोजन आदि सम्पर्क) प्रत्याख्यान (त्याग) से जीव परावलम्बन को समाप्त करके निरावलम्बन (स्वावलम्बन) को प्राप्त करता है। निरावलम्बन (स्वावलम्बी होने) से उसके सम्पूर्ण योग ( मन-वचन-काया के योग - प्रयत्न) आत्मस्थित आयतार्थ - (मोक्षार्थ) हो जाते हैं। वह स्वयं के ( अपने ) लाभ से संतुष्ट रहता है, दूसरे के लाभ का आस्वादन (उपभोग) नहीं करता, तकता ( कल्पना भी नहीं, उसकी स्पृहा (इच्छा) भी नहीं करता, प्रार्थना (याचना ) भी नहीं करता, अभिलाषा भी नहीं करता। दूसरों के लाभ का आस्वादन, कल्पना, स्पृहा, प्रार्थना तथा अभिलाषा न करता हुआ साधक दूसरी सुख शय्या को प्राप्त करके विचरण करता है।
Maxim 34 (Q). Bhante ! What does a jiva (soul / living being) obtain by renouncing eating in company (sambhog-pratyakhyan)?
(A). By renouncing eating in company (eating together or in a group) a being ends dependence and gains independence (self-reliance). Being self-reliant all his associations (through mind, speech and body) are directed towards self and liberation. He remains contented with his own gains and is not concerned with gains of others. He does not even watch, expect, beg or desire to share what others have. Doing so, he moves about with comfort seeking a separate lodge and bed.